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________________ १६ इन्द्रों के आसन चलायमान हुए । इन्द्रों ने अवधिज्ञान से भगवान का दीक्षा समय जान कर वे भगवान के पास उपस्थित हुए। भ. चन्द्रप्रभ ने अपने विशाल साम्राज्य का भार अपने पुत्र चन्द्र को सौप दिया। भगवान ने वार्षिक दान दिया। भगवान सूर्योदय से भोजन के समय तक प्रतिदिन एक क्रोड आठ लाख सुवर्ण का दान देते रहे । एक वर्ष के अन्त में भगवान ने तीनसों अठासी क्रोड और अस्सीलाख स्वर्ण का दान दिया । उसके पश्चात् देवों ने मणहर नाम की रत्न जटित शिबिका तैयार की । वस्त्रालंकारों से सुसज्जित भगवान उसमें विराजमान हुए । इन्द्रों और मनुष्यों ने शिबिका उठाई । जयघोष के साथ शिबिका सहस्त्राम्र उद्यान में पहुंची । भगवान समस्त वस्त्रालंकार का त्याग कर अशोक वृक्ष के नीचे आये । इन्द्र ने वस्त्रालंकार रहित भगवान के देह पर देवदूष्य रखा । पौषकृष्ण त्रयोदशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में चन्द्र के योग में दिवस के पीछले प्रहर में भगवान ने चार मुट्ठी में सम्पूर्ण केश लुंचन कर सम्पूर्ण विरति का व्रत ग्रहण किया । उस दिन भगवान को दो दिन का उपवास था । भावों की उत्कृष्टता के कारण भगवान को चतुर्थज्ञान मनःपर्यव उत्पन्न हुआ। भगवान के साथ एक हजार व्यक्तियों ने दीक्षा ली । दीक्षा ग्रहण कर भगवान ने वहां से विहार कर दिया । (नौवां पर्व पृ. १६६) दूसरे दिन भगवान नलिनीपुर पधारे । वहां सोमदत्त राजा के घर परमान्न से पारणा किया। भगवान का पारणा होते ही वहाँ पांच दिव्य प्रकट हुए । आकाश में देव दुंदुभियां बजने लगी । रत्नों की वृष्टि हुई । पुष्प बरसाये गये । चारों और हर्ष का वातावरण छा गया । भगवान ने अन्यत्र विहार कर दिया । तीन महिने तक छद्मस्थ अवस्था में कठोर तप एवं संयम की उत्कष्ट भाव से आराधना करते हुए आप चन्द्रानना नगरी के बाहर सहस्राम्र उद्यान में पधारे । वहां फाल्गन वदि सप्तमी के दिन अनराधा नक्षत्र में ध्यान की परमोच्च स्थिति में चार घनघाती कर्मों का क्षय कर भगवान ने केवलज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त किया। देवेन्द्रों, देवों आदि ने भगवान का केवलज्ञान उत्सव किया । दिव्य देव दुर्दुभियों से आकाश गुंज उठा । पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा हुई । देवों के आगमन से सारि दिशाएँ प्रकाशमान हुई । देवों ने समवसरण की रचना की । चतुर्निकाय देवों मनुष्यों एवं तिर्यंच की विशाल उपस्थिति में भगवान दिव्य सिंहासन पर विराजे । मेघगर्जना की तरह दिव्यध्वनि से भगवान ने उपदेश प्रारंभ किया । अगार धर्म और अनगार धर्म की व्याख्या करते हुए भगवान ने संसार के स्वरूप को उदाहरण के द्वारा समझाते हुए अस्खलितप्रतापप्रसरनामक नृप का रूपक सुनाया। आपने कहा - __ अलोक क्षेत्र के मध्य भाग में भवचक्र नामक शाश्वत नगर है। वहां कर्म परिणाम को बताने वाला अस्खलित प्रतापप्रसर नामका राजा राज्य करता है। अनादि भवसन्तति नाम की उसकी मुख्य पट्टराणी है । उसके ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ पुत्र है । अकाम निर्जरा नामकी उसकी प्रिय पुत्री है । इत्यादि... रूपक द्वारा उन्होंने कर्म की महत्ता और उसके दुष्परिणामों को सुन्दर ढंग से सभासदों के समक्ष रखा । भगवान का उपदेश सुन कईयों ने मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्व ग्रहण किया क के व्रत ग्रहण किये और कईयों ने सर्व सावध का परित्याग कर अनगारत्व स्वीकार किया । दत्त आदि ९३ महापुरुषों ने जिन दीक्षा ग्रहण कर गणधर पद प्राप्त किया। भगवान के उपदेश की समाप्ति के बाद दत्त गणधर ने उपदेश दिया । हजारों भव्यों को प्रतिबोधित कर भगवान ने चतुर्विध संघ के साथ विहार किया और ग्राम नगर आदि को पावन करते हुए आप समुद्र के पश्चिम किनारे पहुँचे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001587
Book TitleChandappahasami Chariyam
Original Sutra AuthorJasadevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages246
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size17 MB
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