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में श्रीपुर नाम के नगर में श्रीधर्म नाम का राजा था। उसके शशि और शूर नाम के दो सेवक थे । एक बार शशि ने महाधन नामके सेठ के घर चोरी की और चुराया हुआ माल शूर के घर रख दिया। शशि पकड़ा गया। राजा ने उसका सर्वस्व अपहरण कर उसे अपने देश से निष्कासित किया । निष्कासित शशि एक तापस आश्रम में पहुँचा । वहाँ तापसी दीक्षा ग्रहण कर तप करने लगा । अकाम तप से वह मरकर चंडरुचि नामक असुर देव बना । शूर मरकर अजितसेन के रूप में युवराज बना । हे युवराज ! मैं वही चण्डरुचि हूँ | आपको देखकर मुझे पूर्वभव का वैर याद आया । इसी कारण आपका अपहरण कर आप को मार डालने की बुद्धि से आपके साथ मैने युद्ध किया। हे मित्रवर ! मेरे इस दुस्साहस के लिए आप क्षमा करें। ऐसा कह चण्डरूचि देव अजितसेन को अरिंजय नामक नगर में छोडकर स्वस्थान चला गया। अजितसेन अचानक ही अपने आपको विशाल नगर में पाकर आश्चर्य चकित हुआ । अपने समीपस्थ व्यक्ति से उसने पूछा - यह नगर कौनसा है ? उसने कहा- यह अरिंजय नाम का नगर है । यहाँ का राजा जयधर्म है । इसकी रानी का नाम जयश्री
और राजकुमारी का नाम शशिप्रभा है । शशिप्रभा अत्यन्त सुन्दर राजकन्या है । उसके रूप से मोहित होकर महेन्द्र नाम के राजा ने उसे पाने के लिए जयधर्म पर आक्रमण कर दिया है और सारे नगर को अपनी सेना से घेर लिया है । राजा जयधर्म भी नगर का द्वार बन्द कर राजमहल में छुप कर बैठ गया है । अजितसेन ने जब यह बात सुनी तो उसने जयधर्म राजा की सहायता करने का निश्चय किया । अकेला ही वह महेन्द्र राजा की छावनी में घुसा और शत्रु सेना का संहार करता हुआ महेन्द्र नरेश के पास पहुँच गया । उसके साथ युद्ध कर उसने उसे मार डाला और महेन्द्रराजा की सम्पत्ति और सेना को अपने अधिकार में कर लिया। नगर के द्वार खुल गये | जयधर्म राजा ने एवं नगरजनो ने कुमार का बड़ा सन्मान किया। कुमार ने सारी सम्पत्ति राजा को लौटा दी और उसे पुनः राज्य गद्दी पर बिठा दिया । राजकुमार अजितसेन कुछ समय तक वही रहा । आसपास के छोटे बडे राज्य को जीतकर उसने जयधर्म राजा की राज्य सीमा विस्तत की। ___ एक बार शशिप्रभा को पाने के लिए रविपुर नगर के खेचर चक्रवर्ती धरणीध्वज ने जयधर्म पर आक्रमण कर दिया । शक्तिशाली अजितसेन ने खेचर चक्रवर्ती के साथ युद्ध कर उसे भी पराजित कर दिया । इस महान् पराक्रम से प्रसन्न होकर राजा जयधर्म ने अपनी पुत्री शशिप्रभा का अजितसेन कुमार के साथ विवाह कर दिया । ये दोनो सुख पूर्वक जयधर्म की राजधानी में रहने लगे।
कुछ समयतक श्वसुरगृह में रहने के पश्चात् एक दिन उसने श्वसुर से कहा - राजन् ! मेरे वियोग में माता पिता की क्या अवस्था हो रही होगी यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। कृपया मुझे स्वदेश लौटने की
आज्ञा दें । स्वसुर ने जमाई को रोकने का बहुत प्रयत्न किया । अन्ततः जमाई की स्वदेश लौटने की उत्कट इच्छा के आधीन होकर उसे जाने की आज्ञा दे दी । अजितसेन ने रानी शशिप्रभा तथा विशाल चतुरंगी सेना
में आरूढ होकर अपने नगर के लिए प्रस्थान किया। अति तीव्र गति से गमन करता हुआ वह सुन्दरपुर पहुंचा। वहां ऋतुकुलभावन नामके उद्यान में ठहरा । वहाँ सतिवन वृक्ष के निचे ध्यानस्थ मुनिवर को देखा । विनय पूर्वक वन्दन कर वह उनके समीप बैठ गया । ध्यान समाप्ति के बाद धर्मलाभ का आशिर्वाद देते हुए मुनि ने धर्मोपदेश दिया। अपने धर्मोपदेश में मुनि ने जीव का विकास क्रम समझाते हुए क्रोध, मान, माया और लोभ के दुष्परिणाम को बताने वाले दत्त और मूलदेव की कथा कही । (गा. ८३४-१०२७ )
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