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वही वनराज हूं। ___मुनि का उपदेश सुन श्रीधर्म धर्माभिमुख हुआ । वह अपने नगर लौट आया । राज्य का संचालन करते हुए उसे श्रीकान्त नामक पुत्र हुआ । युवावस्था में अपने पुत्र को राज्यगद्दी पर अधिष्ठित कर वह भी दीक्षित हो गया । दीक्षा ग्रहण कर श्रीधर्म ने कठोर तप किया और अन्त में समाधि पूर्वक मरकर प्रथम देवलोक में श्रीहर नामक महर्धिक देव बना । (गा. - ४५७) (तृतीय पर्व पृ. १९)
धातकी खण्ड द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में रमणीय विजय में शुभा नामकी सुन्दर नगरी थी। वहां अजितंजय नामका राजा राज्य करता था । रूप गुण से सम्पन्ना अजिया नामकी उसकी रानी थी । एक दिन रानी अपनी कोमल शय्या पर सुख पूर्वक सो रही थी। रात्री में उसने चौदह महास्वप्न देखे । जागने पर वह राजा अजितंजय के पास पहुँची । रानी ने स्वप्न की बात कही और उनका फल पूछा । राजा ने अपनी बुद्धि के अनुसार स्वप्न के अर्थ को जान कर कहा - देवी ! तुम महान् पराक्रमी चक्रवर्ती को जन्म दोगी। उसी रात्रि में सौधर्मकल्पवासी श्रीधरदेव के जीव ने स्वर्ग से च्युत हो कर महारानी अजिया के उदर में प्रवेश किया । रानी गर्भवती हुई । गर्भकाल के पूर्ण होने पर उसने एक सुन्दर पुत्र रत्न को जन्म दिया। राजा ने बड़े उत्सव के साथ उसका जन्मोत्सव किया और बालक का नाम अजितसेन रखा । अजितसेन अल्पकाल ही में कलाओं में निपुण बन गया । युवावस्था में राजा ने उसे युवराज पद पर अधिष्ठित किया । युवराज अजितसेन अपने समृद्ध मित्र मण्डली के साथ राज्यसुख का अनुभव करने लगा। __ एक दिन राजा युवराज अजितसेन के साथ राज्यसभा में बैठा हुआ था कि अचानक अजितसेन का किसी पूर्व जन्म के वेरी चण्डरुचि असुर ने उसका अपहरण किया । अचानक युवराज का अपहरण देख राजा सामन्त एवं नगरजन घबरा गये । राजा ने एवं नगरजनों ने युवराज की बड़ी खोज की किन्तु युवराज नहीं मिला । राजा निराश था । रानी पुत्रवियोग में दुखी थी । प्रजाजनों ने अपनी अश्रुधारा से सारे नगर को भीगो दिया था किन्तु युवराज का कहीं भी पता नहीं लगा।
एक बार ज्ञानी चारणमुनि का नगर के उद्यान में आगमन हुआ । राजा रानी और नगर जन मुनि दर्शनार्थ उद्यान में गये । मुनि ने विशाल परिषद में संसार की असारता और धर्म की उपयोगिता बताई । उपदेश के अन्त में राजा ने विनयपूर्वक चारण मुनि से पूछा – भगवन् ! मेरे युवा पुत्र का किसने अपहरण किया और वह इस समय कहाँ और किस अवस्था में है ? मुनि ने कहा - राजन् ! तुम्हारा पुत्र इस समय बड़े सुख में है । चडरुचि नामक पूर्व वैरी असुर ने इसका अपहरण किया है । युवराज अतिजसेन ने चडरुचि के साथ युद्ध कर उसे पराजित किया है। कुमार के पराक्रम से प्रसन्न हो चण्डरुचि असुर उसका अनन्य मित्र बन गया है । राजन् ! चण्डरुचि की सहायता से एवं अपने पराक्रम से वह छखण्ड पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती बनेगा । उसके पश्चात् ही वह यहां आकर आप लोगों से मिलेगा । चारण मुनि की बात सुनकर राजा का शोक दूर हो गया और प्रसन्न होकर गुरु को वन्दन कर राजमहल में लौट आया ।
इधर अपहृत युवराज का चण्डरुचि असुर के साथ भयानक युद्ध हुआ । युद्ध में चण्डरुचि हार गया और वह युवराज का प्रगाढ मित्र बन गया । युवराज अजितसेन ने चण्डरुचि से पूछा - मित्र ! अकारण ही मेरा अपहरण कर तूने मुझ से युद्ध क्यों किया ? उत्तर में चण्डरुचि ने कहा - 'मित्रवर ! आज से तृतीय भव
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