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________________ गाहारयणकोसो ५०. अथासतीप्रक्रमः असतीण नमो ताणं दप्पणसरिसेसु जाण हिययेसु । जो चिय गच्छ पुरओ पुरिसो सो चेय संकमइ ॥ ६९७॥ सव्वसम्म विदड्ढे तह वि हु हिययस्स निव्वुई जाया । जं तेण गामदाहे हत्थाहस्थिं कुडो गहिओ ||६९८|| हंसेण समं जह रमइ कमलिणी तह य महुअरेणावि । सिय-कसिणणिव्विसेसाई होंति महिलाण हिययाई ॥ ६९९ ॥ सहउच्छयं जणं दुल्लहं पि दुराओ अम्ह आणतो । उवयारि जरय ! जीयं पि निंत ! न कयावराहो सि ॥ ७०० ॥ अस्थिज्जइ निन्ने, भत्ते अरुई, जडम्मि अइतिन्हा | वेज्ज ! तहा कुणसु लहुं जह अन्नं मज्झ पडिहार || ७०१ || विज्ज ! जरो न हु एसो चिरवाही चेय को संभूओ । उवसमइ सलोणेणं विडंगजोयामयरसेणं ॥ ७०२॥ अन्नत्थ वच्च बालय ! न्हायंति कीस मं पलोएसि । एयं रे ! जायाभीरुयाण तूहं चिय न होइ ॥ ७०३ || पाणिगहिया व पुरओ कया वि नेहेण सिच्चमाणा वि । थेरस पिया करदीविय व्व अन्नाणमुवयरइ ||७०४ || वक को पुलइज्जइ ? कस्स कहिज्जइ सुहं व दुक्ख वा ? | केण व समं हसिज्जइ ? पामरंपरे हयग्गामे ॥ ७०५ | अइलज्जियम भीयं अइभूमिपलोयणं च अझमाणं । पुरिसस्स महिलियाए न [?] सुइसीलस्स चरियाई ॥ ७०६ || कस्स व न होइ रोसो दट्ठूण पियाए सव्वणं अहरं ? | सभमर उमग्याइरि ! वारिवामे ! सहसु इहि ||७०७ || जाइकलियं न इच्छसि, कमलग्गं मुयसि, अक्कमारूढे ! | faatraad लच्छि ! भमरि ! ओ ! वंदणिज्जा सि ||७०८ | ५१. अथ वृक्षजातिप्रकमः मूलाहिंतो साहाण संभवो होइ सयलवच्छाणं । साहाहिं मूलबंध जेहिं कओ ते तरू विरला ॥७०९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ५५ www.jainelibrary.org
SR No.001584
Book TitleGaharayankosa
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
AuthorAmrutlal Bhojak, Nagin J Shah, Dalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Sermon
File Size6 MB
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