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रथ मर्दनपुरि कीआ रे दंदाला, सेर सेरी करंकका टोला; मंदिर मंदिर कींनी मारी, विलपति सबजन ठाहारो ठारी
जन आंसूकी भई नीझरणी, शोकानलकी भई तन अरणी; हाहाःकार करति सब लोका, सत्रजन व्याकुल भओ सशोका. ४ दहनकुं पावति नहीं अवकाशा, कुणपकी गंधि पूरी सब आकाशा; बालक वृद्ध युवजन मार्या, हणतइ स्त्रीजन को न ऊगार्थं. ५
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योगिणि भोगनिकी परि हुइ आई, आपइ किंउं यमदूती; करवि न धापइ पापकी कोरी, ऋषिदत्तास्यउं मांडी जोरी. निशि निशि प्रति अवस्वापिनी, देवइ सा स्त्री पतिकुं तेणई लेवइ ; मानवकु निशि समइ मारी, कुमरके मंदिर नांखइ सा हारी.
ऋषिदत्ता के अधर युं रंगइ, शोणित ले करि रोसि अभंगई; वस्त्र देवति शोणित छटकी, रंगति करइ युग योगिणि हटकी.
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सती सिय्या पासइ पिसत करंडा, छोडइ सुलसायोगिणि रंडा; निद्रा लेकरि निकसी यावइ, मारि मारि जन सार ऊठावइ.
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ऊठतउ नींद कुमर तव भुरइ; भृतजनके परिदेवन सोरइ; करुणा पायउ जनके दुखइ, सोणित देखइ सती के मुखई. १० लाल भये कर सोणित भासइ, पिशत करंडा सिज्याके पासइ; कुमर आसंका चितस्युँ पायु, विधिना अनरथ कहा रे उठाउ
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मारि विधुर प्रजा हइ बहु दुस्था, वनिताकी दुरिया ही व्यवस्था; युं विष वरषइ ससिकी कंतई, भोर अंधीआस रविथी हुंतई. १२
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शसिथी निरमल चरिता कंता, कदही न देख्या दोष वृतंता ; परतखि वात देखइ उर इसी परिणित उसकी हावइगी कइसी. १३
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ईउं मनि चिती कुमर जगावइ, वनिता ऊठी आपसुभावई; जभा पावति सग बग अलकां, मुकलित नयनां यु चंपक कुलिकां १४
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