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________________ दुहाः तब हि कोलाहल अति थयउ, आकुल सवि परिवार; काबेरी-पति ते सुणी, आव्यु तेणी वार. परि परि वारइ भूप ते, वार्यउ न रहइ कुमार; ऋषिदत्ता सभारतउ, वरसइ आंसूधार. प्रांणप्रीया प्रति जायतां, मुझ मत वारु कोइ; विसमी विरहनी वेदना, रांम लहइ जगि साइ. कहिनउ वार्यउ नवि रहइ, तव बोल्य उ ऋषिराज; सुणि सुविवेकी कुमर तउं, स्य उं करइ अकाज. जे अविवेकी अधमजन, करइ आपसुघात; भव अनंता तउ रलइ, न लहइ धरमनी वात. पुरुष मरइ स्त्रीकारणइं, अतउ अवली रीति; जगि हासारथ कां करइ, चतुर विचारि सुचीति. सवि वंछित पामइ घणा, नर साहसीक जीवंत; भानु प्रधानिइ सरस्वती, जिम पांमी गुणवंत जीवंतां मिलवा लहइ, किहारइं वनिता सोइ; प्राणि प्रांण तिजी करी, बेहु भव मत खोहि. ढाल ३४ राग : केदारु गुडी. (पारधीआरे मुझ ते वनवाट देखाडि-देशी.) ऋषिनी वांणी इम सुणी रे, बोल्यउ कनक कुमार; ऋषिजी तुम्हे तु नवि ल ह्यउ रे, दोहिलउ प्रेम विवहार. सलूणा साथी को मुझ मेलइ तास, हुं तउ तेहनउ भवि भवि दास. १ जउ तसु प्रांण न दीजीइ रे, तउ स्य उं प्रेम मंडाण; जे कसि पुह चइ छह लगई रे, तेहस्यउं साचउ बंधाण. २ सलूंणा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001581
Book TitleRushidattras
Original Sutra AuthorJayvantasuri
AuthorNipuna A Dalal, Dalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size11 MB
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