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________________ सत्यशासन-परीक्षा [३] विद्यानन्दिको रचनाएँ अबतक विद्यानन्दिके निम्नलिखित ग्रन्थोंका परिचय प्राप्त हुआ है १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिक और धर्मकीतिके प्रमाणवातिककी तरह विद्यानन्दिने पद्यात्मक तत्त्वार्थश्लोकवातिक रचा और उसपर गद्यात्मक भाष्य लिखा । यह भाष्य तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य, तत्त्वार्थश्लोकवातिकव्याख्यान, तत्त्वार्थश्लोकवातिकालङ्कार और श्लोकवार्तिकभाष्य नामोंसे प्रसिद्ध है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैन सिद्धान्त और दार्शनिक मन्तव्योंका प्रामाणिक विश्लेषण करनेवाला उत्कृष्ट कोटिका ग्रन्थ है। विद्यानन्दिने इसकी रचना करके कुमारिल और धर्मकीति-जैसे धुरंधर ताकिकों-द्वारा जैनदर्शनपर किये गये आक्षेपोंका सयुक्तिक उत्तर दिया तथा जैन-चिन्तनको तर्कको कसौटीपर कसकर सिद्धान्तशास्त्रको न्यायशास्त्रकी कोटिमें ला दिया । इस महान् ग्रन्थका प्रकाशन सर्वप्रथम सेठ रामचन्द्र नाथारङ्गजी-द्वारा सन् १९१८ में हुआ था, उसके बाद कुन्थसागर जैन ग्रन्थमालासे पं. माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्यकृत हिन्दी अनुवादसहित कई भागोंमें प्रकाशित हो रहा है । निःसंदेह न्यायके ग्रन्थोंका हिन्दी अनुवाद अत्यन्त कठिन कार्य है-इस दृष्टि से अनुवादक अभिनन्दनीय है: किन्तु यदि मूल ग्रन्थका संशोधन सम्यक् प्रकारसे हो जाता तो सोने में सुगन्धका काम होता। २. अष्टसहस्त्री या देवागमालङ्कार-यह समन्तभद्र विरचित 'आप्तमीमांसा' अपर नाम 'देवागमस्तोत्र' पर लिखा गया विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण भाष्य है। विद्यानन्दिने अत्यन्त कुशलताके साथ अकलंककी अष्टशतोको अष्टसहस्रीमें अन्तःप्रविष्ट करके 'आप्तमीमांसा' की प्रत्येक कारिकाका व्याख्यान किया है। अष्टसहस्री न्यायकी प्राञ्जल भाषामें लिखा गया अत्यन्त दुरूह और जटिल ग्रन्थ है। स्वयं विद्यानन्दिने इसे 'कष्टसहस्री' कहा है। अकलंकको अष्टशतीके प्रत्येक पदका हार्द विद्यानन्दिकी अष्टसहस्रीके बिना नहीं समझा जा सकता। मेरा तो यहाँतक विचार है कि समन्तभद्र को समझने के लिए भी विद्यानन्दिके शास्त्रोंका सूक्ष्म अभ्यास आवश्यक है। अष्टसहस्रीमें 'आप्तमीमांसा' तथा 'अष्टशती' में चचित विषयोंके अतिरिक्त भी अनेक नये विषयोंका विवेचन किया है । विद्यानन्दिको यह उक्ति केवल गर्वोक्ति नहीं है कि "श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव हि स्वसमय-परसमयसद्भावः ॥" अर्थात् हजार शास्त्रोंको सुननेसे क्या, अकेली अष्टसहस्रीको सुन लेनेसे स्व-सिद्धान्त और पर-सिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायेगा। अष्टसहस्रीका प्रकाशन सन् १९१५ में सेठ नाथारङ्गजी गान्धी-द्वारा किया गया था। वर्तमानमें ग्रन्थ बाजारमें प्राप्त नहीं होता। इसका सुसम्पादित नवीन संस्करण नितान्त आवश्यक है। अष्टसहस्रीपर लघुसमन्तभद्र (वि. की १३वीं शती ) की 'अष्टसहस्री विषमपदतात्पर्यटीका' तथा यशोविजय (वि. की १७वीं शती ) की 'अष्टसहस्रोतात्पर्य विवरण' नामक व्याख्याएँ हैं।। ३. युक्तयनुशासनालङ्कार-यह आप्तमीमांसाकार समन्तभद्रके द्वितीय ग्रन्थ युक्त्यनुशासनपर विद्यानन्दिको विशद टीका है। इसीलिए इसके युक्त्यनुशासनालंकार तथा युक्त्यनुशासनटीका ये दो नाम प्रसिद्ध है। १. श्री पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य-द्वारा आप्तपरीक्षाकी प्रस्तावनामें दिये गये परिचराके आधारसे । २. अष्टसहस्री, प्रशस्ति, श्लो० २ । ३. अष्टसहस्री, पृ० १५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001567
Book TitleSatyashasana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages164
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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