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________________ प्रस्तावना.. लिए जिस उन्नत सुमेरुका निर्माण किया उसको पृष्ठभूमिमें आगमिक मूल्योंसे लेकर उमास्वाति, समन्तभद्र , सिद्धसेन आदि सभी आलोकित हो उठे। इन पर्वाचार्योंके चिन्तनको पल्लवित और पष्पित करनेवाले अकलंक जैन-न्यायके प्रस्थापक आचार्य सम्राट बन गये। धर्मकीति और कुमारिलके खण्डनका सयक्तिक उत्तर देकर अकलंकने जैन-न्यायको भारतीय न्याय-शास्त्र के इतिहासमें मर्धन्य बना दिया। अकलंक-न्यायको सम्पूर्ण रूपमें आत्मसात् करनेवाले आचार्य विद्यानन्दिको चिन्तनका एक अपूर्व भाण्डागार विरासतमें मिला । कुन्दकुन्द और उमास्वातिका विशुद्ध तत्त्वज्ञान, समन्तभद्र और सिद्धसेनको प्रसन्न तकशैली तथा भद्र अकलंकका अपराजेय पाण्डित्य विद्यानन्दिको पैतृक सम्पत्तिकी धरोहरकी तरह प्राप्त हुए। अपनी तलस्पशिनी प्रज्ञाके बलपर सुयोग्य उत्तराधिकारीकी तरह एक-एक कणकी सुरक्षाके लिए विद्यानन्दिने एक ऐसे महाप्राकारका निर्माण किया, जिसके सिंहद्वारके सामने पहुंचते ही अभिमानीका मान चूर-चूर हो जाये। ___ विद्यानन्दि अकलंकके साक्षात् शिष्य रहे हों या नहीं, किन्तु उन्हें अकलंककी जो विरासत मिली उससे वे अकलंकके उत्तराधिकारी अवश्य बन गये । अकलंकका समस्त चिन्तन, भाव, भाषा और शैली विद्यानन्दिकी उपजीव्य बन गयी। अकलंकको बौद्ध दार्शनिकोंका सामना करने में अत्यधिक आयास करना पड़ा था, किन्तु उस आयासके प्रतिघातसे बौद्धन्यायको ऐसा धक्का लगा कि कमसे-कम वह विद्यानन्दिके सामने तो मॅह नहीं हो उठा सका। यही कारण है कि अकलंकके ग्रन्थों में बौद्ध सिद्धान्तोंका जितना खण्डन है, उतना विद्यानन्दिके ग्रन्थों में नहीं। विद्यानन्दिको सम्भवतया धर्मकीर्तिके शिष्योंको अपेक्षा कुमारिलके उत्तराधिकारियोंसे अधिक निपटना पड़ा; यही कारण है कि विद्यानन्दिका शास्त्र मीमांसा और वैशेषिक सिद्धान्तोंके खण्डनसे भरा पड़ा है। इतना होनेके बाद भी सम्भवतया विद्यानन्दिको परवादियोंका उतना मकाबला नहीं करना पड़ा जितना अकलंकको करना पड़ा था; इसी कारण अकलंकके द्वारा प्रस्थापित प्रमेयोंको विस्तार के साथ समझानेका उन्हें पर्याप्त अवसर प्राप्त हो गया। अकलंकके एक-एक शब्दको विद्यानन्दिने अपनी प्रज्ञाके प्रकाशसे ऐसा आलोकित कर दिया कि युगों-युगों तक वह आकाश-दीपका काम करता रहे । जिस युगमें विद्यानन्दिका आविर्भाव हआ उस युगमें शास्त्र-रचनाकी एक विशेष शैली निश्चित हो चुकी थो। किसी भी अन्य दर्शनके सिद्धान्तको पूर्वपक्षके रूपमें अपने ग्रन्थमें प्रस्थापित करके उत्तरपक्षमें उसका खण्डन करना तथा तत्पश्चात् स्व-सिद्धान्तका स्थापन करना। शास्त्र-रचनाकी इस पद्धतिने दार्शनिक असहिष्णुताके उस युगमें भी शास्त्रकारको अन्यान्य दर्शनोंका अध्ययन करना अनिवार्य बना दिया था। इस अनिवार्यताका भी विद्यानन्दिके व्यक्तित्व निर्माणमें उतना ही महत्त्वपूर्ण योगदान मानना चाहिए जितना अकलंककी धरोहरका। विद्यानन्दिने अपने युगकी इस अनिवार्य आवश्यकताको दृष्टिमें रखते हए प्रत्येक दर्शनके मूल ग्रन्थोंका अन्तःप्रविष्ट अध्ययन किया और उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तोंके लचीलेपनको सामने लाकर उसपर तर्कका भयंकर वज्र-प्रहार किया। विपुल विमल प्रज्ञाके धनी इस महान दार्शनिकका चिन्तन अपने यगपर सहस्ररश्मिके प्रकाशकी तरह ऐसा छा गया कि भारतीय चिन्तबके इतिहाससे उसे ओझल करनेकी कल्पना-मात्र से भी सम्पूर्ण ज्ञानाकाश तिमिराच्छन्न-सा होने लगता है। [२] विद्यानन्दिका समय आचार्य विद्यानन्दिने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपने समयका निर्देश नहीं किया इसलिए उनके ग्रन्थोंके अन्तःपरीक्षण तथा अन्य पूर्वोत्तर आचार्योके उल्लेखोंके आधारपर उनके समयका निर्णय किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001567
Book TitleSatyashasana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages164
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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