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सत्यशासन-परीक्षा
विद्यानन्दिने सत्यशासन-परीक्षामें शृङ्गारशतकका निम्न पद्य उद्धृत किया है
"स्त्रीमुद्रां कुसुमायुधस्य जयिनी सर्वार्थसंपत्करीम् , ये मदाः प्रविहाय यान्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषिणः । ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं नग्नीकृता मुण्डिताः, केचित्पञ्चशिखीकृताश्च जटिलाः कापालिकाश्चापरे ॥"
[शृङ्गारशतक ७९] चार्वाक सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करते हुए इस पद्य को अन्य पद्योंके साथ 'तथैवोक्तम्' कहकर उधत किया गया है। [१३] मीमांसा-श्लोकवार्तिक और सत्यशासन-परीक्षा
मीमांसकधुरीण कुमारिलभट्टका मीमांसा-श्लोकवार्तिक मीमांसादर्शनका मुर्धन्य ग्रन्थरत्न है। संस्कृतके अनुष्टुप पद्योंमें मीमांसादर्शनके सिद्धान्तोंका तर्कशैलीमें सांगोपांग विस्तृत विवेचन करनेवाला अपनी कोटिका यह अकेला ग्रन्थ है। विद्यानन्दिने सत्यशासन-परीक्षामें मीमांसासिद्धान्तोंका तो खण्डन किया ही है, खास इस ग्रन्थकी कारिकाओंको उद्धत करके उनका भी खण्डन किया है। विभिन्न प्रसंगोंपर मीमांसाश्लोकवातिककी पाँच कारिकाओंको उद्धृत किया गया है
पुरुषाद्वैतशासन-परीक्षामें प्रत्यक्षसे पुरुषाद्वैतकी सिद्धि करते हुए निर्विकल्पकप्रत्यक्षको परमब्रह्मका साधक बताया गया है तथा ज्ञानकी निर्विकल्पताके लिए मीमांसा-श्लोकवातिकका निम्न पद्य उद्धृत किया है
१. "अस्ति ह्यालोचनज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । ___बालमूकादिविज्ञानं सदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥"
[ मी० श्लो०, प्रत्यक्ष० श्लो० १२० ] इसी प्रसंगमें सामान्यका खण्डन करते हए दूसरा निम्न पद्य आया है२. "निर्विशेषं न सामान्यं भवेत्खरविषाणवत । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि ॥""
वही : आकृति. इको.१.1 मीमांसाशासन-परीक्षामें विभिन्न प्रसंगोंपर निम्न तीन पद्य है३. "तस्मात् पिण्डेषु गोबुद्धिरेकगोत्वनिबन्धना। गवामासैकरूपाभ्यामेकगोपिण्डबुद्धिवत् ॥"
[वही : वन० श्लो० ४४, ४५] ४. "न शाबलेयाद्गोबुद्धिस्ततोऽन्यालम्बनापि वा।
तदभावेऽपि सद्भावाद् घटे पार्थिवबुद्धिवत् ॥" ५. "मोक्षार्थी न प्रवर्तेत तत्र काम्यनिषिद्धयोः । नित्यनैमित्तिके कुर्यात प्रत्यवायजिहासया ॥
[वही : संब० श्लो० ११.] [१४] प्रमाणवार्तिक और सत्यशासन-परीक्षा
प्रमाणवातिक बौद्धदर्शनके प्रस्थापक आचार्य धर्मकीतिका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । बौद्धन्यायको न्यायशास्त्रकी समुन्नत वेदिकापर लानेका कार्य अकेला प्रमाणवातिक कर सकता है। न्यायकी प्रौढ़ एवं तार्किक भाषा
१. सत्य. चार्वाक०६३ २. सत्य. परमब्रह्म०६ १७ ३. शशविषाणवत् , इति पाठभेदः। ४, वही १७
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