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सत्यशासन-परीक्षा
सत्यशासन-परीक्षामें न्यायविनिश्चियकी निम्न कारिका भट्ट अकलंकके नामोल्लेखके साथ उदधत की गयी है
"तदुक्तं भट्टाकलङ्कदेवैःइन्द्रजालादिषु भ्रान्तिमोरयन्ति न चापरम् । अपि चाण्डालगोपालबाललोलविलोचनः ॥१
[न्यायविनि० श्लो० १।५२ ] परमब्रह्माद्वैतवादीने भेदावभासी प्रत्यक्षको इन्द्रजाल आदिकी तरह भ्रान्त कहकर अद्वैतको सिद्ध करने के लिए जो तर्क उपस्थित किया उसका निरसन करते हुए भेदावभासी प्रत्यक्ष तथा इन्द्रजाल आदि प्रत्यक्षका परस्पर भेद दिखाते हुए विद्यानन्दिने उपर्युक्त कारिका उपन्यरत की है। [५] लघीयस्त्रय और सत्यशासन-परीक्षा
लघीयस्त्रय भी भद्र अकलंककी दार्शनिक कृति है। संस्कृत पद्योंके साथ स्वोपज्ञ विवृति सहित लिखे गये इस ग्रन्थमें प्रमाण, नय और प्रवचनका विवेचन किया गया है।
लघीयस्त्रयपर आचार्य प्रभाचन्द्रकी 'न्यायकुमुदचन्द्र' नामक विस्तृत टीका है जिसे लघीयस्त्रयालंकार भी कहते हैं।
सत्यशासन-परीक्षामें लघीयस्त्रयका निम्न पद्य भट्ट अकलंकके नामोल्लेखके साथ उद्धृत किया गया है
"तथैवोक्तं भट्टाकलङ्कदेवैःयथैकं भिन्नदेशार्थान् कुर्याद्वथाप्नोति वा सकृत् । तथैक भिन्नकालार्थान कुर्याद्वथाप्नोति वा क्रमात् ॥"'
[लघीय. इलो० ३७] बौद्धशासन-परीक्षाके प्रसंगमें सामान्यका विवेचन करते समय उपर्युक्त पद्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है। [६] सिद्धिविनिश्चय और सत्यशासन-परीक्षा
भट्ट अकलंकको महान् दार्शनिक कृतियोंमें सिद्धिविनिश्चय अनन्य कृति है। मूल ग्रन्थके प्राप्त न हो सकने के बाद भी स्व० डॉ० पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने सिद्धिविनिश्चय टीकाके आधारपर अथक परिश्रम करके मूल ग्रन्थका संयोजन करके पूर्ण समृद्ध संस्करण तैयार किया था।
सिद्धिविनिश्चयमें विभिन्न १२ प्रकरणोंमें अनेक दार्शनिक विषयोंका विवेचन किया गया है।
विद्यानन्दिने निःसंदेह अकलंक के अन्य ग्रन्थों की तरह सिद्धिविनिश्चयका भी गहन अध्ययन किया होगा। सत्यशासन-परीक्षामें इसका एक पूर्ण पद्य तथा एक आधा पद्य दो प्रसंगोंपर उद्धत है।
[क] पुरुषाद्वैत या परमब्रह्माद्वैतशासन-परीक्षामें अविद्याका विचार करते समय अकलंकके नामोल्लेखके साथ निम्न श्लोकार्ध उदधत किया है"यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता।"
[सिद्धिवि. ११९] इस पद्यका पूर्वार्ध निम्न प्रकार है"प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं प्रसन्नाक्षेतरादिषु ।”
[सिद्धिवि० १।१९]
१. सत्य. परमब्रह्म०६ १५ २. सत्य० बौद्ध ६३१ ३, भारतीय ज्ञानपीठ, काशीसे दो भागोंमें प्रकाशित । ४. सत्य० परमब्रह्म०६ ३७
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