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________________ प्रस्तावना [उत्तरपक्ष ] ६. यह विज्ञानाद्वैत प्रत्यक्ष विरुद्ध है क्योंकि विज्ञान-स्वरूप अन्तरंग अर्थको तरह बाह्य अर्थका भीवास्तविक रूपसे प्रत्यक्ष होता है। इस प्रत्यक्षको भ्रान्त कहना युक्ति-युक्त नहीं; क्योंकि ऐसा कहनेपर विज्ञानाद्वैतवादियोंको सर्वथा क्षणिक, अनन्यवेद्य तथा नाना सन्तानवाले विज्ञानोंकी सिद्धि अनुमानसे करनी होगी। स्वसंवेदनसे सिद्धि माननेपर उसोसे पुरुषाद्वैतको भी सिद्धि हो जायेगी। वास्तवमें तो पूर्वोक्त प्रकारके विज्ञानोंका अनुभव ही नहीं होता। इसलिए विज्ञानकी सिद्धि अनुमानसे ही माननी होगी। ७-८. अनुमानसे संवित्ति (विज्ञान) का वेद्य-वेदकभाव माननेपर बाह्य अर्थमें भी उसीसे वेद्यवेदक भाव मान लेना चाहिए; क्योंकि दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। यहाँपर अनुमान-प्रयोग इस प्रकार होगा "विमत्यधिकरणभावापन्नं ज्ञानं साक्षात्परम्परया वा स्वरूपव्यतिरिक्तालिम्बनमः ग्राह्य ग्राहकाकारत्वात; सन्तानान्तराद्यनुमानवत् ।" यह कहना उचित नहीं कि इस अनुमानमें बाधित विप्लवज्ञानसे व्यभिचारदोष आयेगा; क्योंकि ऐसा कहनेपर सन्तान आदि साधनके भी वही दोष आयेगा। ६९. यदि सत्याभिमतज्ञानसे वासनाभेद माना जाये तो बाह्य अर्थक विषयमें भी ऐसा ही मानना चाहिए। $१०. "बाह्य अर्थके प्रत्यक्षका बाधक नील और उसके ज्ञानका अभेद मौजूद है, क्योंकि दोनोंका एक साथ ज्ञान होता है; जैसे द्विचन्द्रज्ञान ।। यह अनुमान प्रत्यक्षका बाधक नहीं बन सकता क्योंकि इसमें किया गया हेतु विरुद्ध है। असिद्ध भी है। ११. "सर्वे प्रत्ययाः निरालम्बनाः, प्रत्ययत्वात्, स्वप्नप्रत्ययवत् ।" यह अनुमान भी बाह्य प्रत्यक्षका बाधक नहीं; क्योंकि साध्य और साधन दोनों विज्ञानमात्र होनेसे हेतु नहीं बन सकता। १२. इस तरह विज्ञानाद्वैत प्रत्यक्ष विरुद्ध है। १३. विज्ञानाद्वैत इष्ट विरुद्ध भी है; क्योंकि अनुमानसे बाह्य अर्थ सिद्ध होते हैं। वह अनुमान इस प्रकार है "सन्ति बहिराः, साधनदूषणप्रयोगात् ।" । १४.-१५. इस अनुमानमें साधनसे प्रयोजन नील आदिके संवेदनत्वसे है; दूषणका अर्थ है बाह्य अर्थका निषेध; तथा इन दोनोंके प्रयोगका अर्थ है प्रकाशन या विवेचन करना। इस तरह विज्ञानाद्वैत इष्ट विरुद्ध भी है। [चित्राद्वैतशासन-परीक्षा] १६. उपर्युक्त विज्ञानाद्वैतके निराससे चित्राद्वतका भी निरास हो जाता है; क्योंकि चित्राद्वैतवादियोंके यहाँ भी विज्ञानाद्वैतकी तरह बाह्य अर्थका निषेध किया गया है। [ चार्वाकशासन-परीक्षा] [पूर्वपक्ष ] १. "सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेदः कथं तयोः ॥" (तत्त्वसं० श्लो० ३१४९ ) --सुगत यदि सर्वज्ञ है, कपिल नहीं; तो इसमें क्या प्रमाण है ? और यदि दोनों सर्वज्ञ हैं तो उनके विचारोंमें परस्पर भेद क्यों है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001567
Book TitleSatyashasana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages164
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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