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________________ १३ अत्यन्त सुन्दर थी । दोनों एक दूसरे में आसक्त हो गये । राजा उसे अनिमेष दृष्टि से देखने लगा और वहीं स्तब्ध सा खड़ा हो गया। तब उसके मंत्री सुमति ने उसे आगे चलने के लिए कहा। ज्यों त्यों वह उद्यान में आया और अपनी सारी मनोकामना मंत्री के सामने रखी। मंत्री ने उसे आश्वस्त किया और अत्तेइया नाम की परिब्राजिका को वनमाला के पास भेजा। परिव्राजिका बनमाला के पास गई और उसे भी चिन्तामग्न दशा में देखकर उससे सारी बात जान ली। उसने मंत्री से आकर कहा राजा और वनमाला का मिलन प्रातःकाल हो जायगा । वह यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ । वनमाला को लेकर परिवाजिका राजा के पास आई। राजा ने वनमालिका को अपने महल में रन लिया । राजा उसके साथ भोग-विलास करते हुए अपना समय बीताने लगा । वनमाला को अपने घर में न पाकर उसका पति कुविद वीरक उसकी खोज में रात दिन नगर में परिभ्रमण करने लगा | पागल और उन्मत्त दशा में हे वनमाला ! हे वनमाला ! ऐसा उच्च स्वर में बोलता हुआ एक दिन वह राजा के महल के नीचे से निकला । उस समय राजा वनमाला के साथ महल के झरोखे में बैठा हुआ था । कुविंद बीरक की वनमाला के विरह में उन्मत्त सी दशा देखकर राजा को एवं वनमाला को अत्यन्त दुःख हुआ। वे अपने दुष्कर्म का पश्चाताप करने लगे। उस समय आकाश बादलों से छाया हुआ था। सहसा गर्जना के साथ बिजली चमकी और वह दोनों पर गिरी वनमाला तथा राजा दोनों तत्काल मर गये । वहां से मरकर दोनों हरिवर्ष क्षेत्र में हरि और हरिणी के नाम से युगल रूप में उत्पन्न हुए। वहां सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। इधर कुविद वीरक वनमाला के वियोग में तप करने लगा । बाल तप से वह मरा और सौधर्म देवलोक में fefeofue देव बना । उसने अवधि ज्ञान से अपना पूर्वभव देखा और अपने शत्रु हरि और हरिणी को युगलिये के रूप में कीड़ा करते हुए देखा। उन्हें देखते ही उसे क्रोध उत्पन्न हुआ। उसने सोचा- युगलिये अकाल में नहीं मरते अतः इन्हें मारने का प्रयत्न करना निरर्थक होगा । यदि ये यहीं मरेंगे तो मरकर देवलोक में जायेंगे । अतः ये मरकर दुर्गति में जायें ऐसा ही प्रयत्न करना चाहिए। यह सोचकर उसने दोनों को उठाया और भरत क्षेत्र की चम्पा नाम की नगरी के बाहर उद्यान में इन्हें रख दिया । उस समय चम्पापुरी के राजा चन्द्रकीर्ति की मृत्यु हो गई थी । मंत्रीगण दूसरे राजा की खोज में इधरउधर घूम रहे थे। उस समय आकाशवाणी हुई। आकाश में रहकर देव ने कहा- नगरजनों! मैं आपके लिए हरिवर्ष से एक युगल लाया हूँ। वह राजा रानी होने के योग्य हैं। इस युगल को आप लोग कल्पवृक्ष के फलों के साथ-साथ पशु-पक्षियों का मांस भी देना। क्योंकि यही उसका आहार है। लोगों ने उसकी बात मान ली । लोगों ने बड़े सम्मान के साथ उसे राजगद्दी पर अधिष्ठित किया। देव ने अपनी शक्ति से उस युगल की आयु स्थिति नाम कर दी तथा उसकी अवगाहना भी कम कर दी । कालान्तर में विविध भोग भोगते हुए राजा को एक पुत्र हुआ। उसका नाम पृथ्वीपति रखा। अपनी प्रियतमा हरिणी के साथ अनेक पापों का उपार्जन करता हुआ राजा हरि मरा और घोर नरक में उत्पन्न हुआ। हरिवर्ष से अपहृत हरि और हरिणी के नाम से इसका वंश हरिवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ । हरि की मृत्यु के बाद पृथ्वीपति राजा बना। कालान्तर में पृथ्वीपति को एक पुत्र हुआ उसका नाम महागिरि रखा। अपनी पिता की तरह महागिरि भी बड़ा पराक्रमी राजा बना। महागिरी ने अपने पुत्र हिमगिरी को राजगद्दी पर प्रतिष्ठित किया और अपने पिता की तरह ही दीक्षा ग्रहण कर आत्म कल्याण किया । हिमगिरी के पश्चात् उसका पुत्र वसुगिरी राजा बना । वसुगिरी भी बड़ा पराक्रमी राजा था। उसने अपने राज्यकाल में राज्यश्री की अभिवृद्धि की वृद्धावस्था में अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001564
Book TitleMunisuvratasvamicarita
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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