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________________ १२ एक दिन अपनी शिष्य मंडली के साथ सुजस नाम के आचार्य नगर के बाहर उद्यान में ठहरे । उनके दर्शन के लिए सिन्धसेन वीरसेन, वज्रकुण्डल एवं चक्रवर्ती वज्रनाभि परिवार के साथ गये । आचार्य का उपदेश सुनकर चक्रवर्ती वज्रनाभि ने तथा सिन्धसेन ने आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । आचार्य ने अन्यत्र विहार कर दिया । इधर वज्रकुण्डल राजा भी अपनी विशाल सेना के साथ अपनी राजधानी की ओर चला आया। मार्ग में सर्वत्र जिन मन्दिर का निर्माण करता हुआ जिन शासन की प्रभावना जिन पूजा आदि सत्कार्य करता हुआ, अपनी राजधानी में लोट आया । सुखपूर्वक रहते हुए वज्रकुण्डल राजा को एक पुत्र हुआ । उसका नाम प्रतापदेव रखा गया । प्रतापदेव बड़ा हुआ । वज्रकुण्डलराजा ने उसे युवराज बनाया। एक दिन ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए सुजससूरि नगर में पधारे । राजा वज्रकुण्डल ने मुनि का उपदेश सूना । पुत्र को राजगद्दी पर अधिष्ठित कर अपने पांच सौ मित्रों के साथ वज्रकूण्डल दीक्षित हो गया । प्रव्रज्या लेकर वज्रकुण्डल मुनि ने खूब तप किया ।कर्म को खपाते हुए अन्त में पादोपगमन संथारा कर देह का त्याग किया और मरकर ब्रह्मदेवलोक में महद्धिक देव बना सातवां और आठवां भव-- दक्षिणार्द्ध भारतवर्ष में चन्द्रपुरी नाम की समद्ध नगरी थी । वहां नरपुंगव नाम का प्रतापी राजा राज्य करता था । उसकी पुण्यश्री नाम की पट्टरानी थी । एक दिन महारानी सुख शय्या पर सोई हुई थी । उसने रात्री के चतुर्थ प्रहर में श्वेत वस्त्र पहनी हुई श्वेत कुसुमा भरणों से सुशोभित श्रीदेवी को देखा । श्रीदेवी ने महारानी पुण्यश्री ने कहा - देवी! तुम कामदेव के समान अत्यन्त सुन्दर रूपवाले पराक्रमी पुत्र को जन्म दोगी । स्वान देखकर रानी जाग उठी । उसने पति से स्वप्न का वृत्तान्त कहा । रानी के मुख से स्वप्न का बत्तान्त सुनकर राजा ने कहा-देवी! तुम सर्वगुणों से युक्त पुत्ररत्न को जन्म दोगी। ब्रह्मदेवलोक का आयुष्य पूर्ण कर वज्रकुण्डल का जीव रानी पृप्यत्री के उदर में उत्पन्न हुआ। गर्भकाल के पूर्ण होने पर रानी ने सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। स्वप्न के अनुसार वालक का नाम श्रीवर्मकुमार रखा । श्रीवर्मकुमार ने क्रमशः यौवन वय को प्राप्त किया । युवा होने पर श्रीवर्मकुमार का बसन्तश्री आदि राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ । राजा ने इसे युवराज पद पर अधिष्ठित किया। __ एक बार आनन्दसूरि अपने शिष्य परिवार के साथ चन्द्रपुरी पधारे और नगर के बाहर उद्यान में ठहरे आचार्य चार ज्ञान से सम्पन्न थे । ज्ञानी आचार्य का आगमन सुन नरपुंगव राजा अपने युवराज पुत्र श्रीवर्मकुमार के साथ आचार्यश्री के दर्शनार्थ उद्यान में गया। आचार्य का उपदेश सुनकर नरपुंगव को वैराग्य भाव जागृत हुआ। उसने श्रीवर्म को राजगद्दी पर अधिष्ठित कर मंत्री आदि परिवार के साथ दीक्षा ग्रहण की । राजा श्रीवर्मकुमार पिता द्वारा प्रदत्त राज्य का संचालन करने लगा। ___ किसी समय नन्दनमुनि का चन्द्रपुरी में आगमन हुआ । राजा ने नन्दनमुनि का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर राजा वैराग्य रंग में रंग गया । उसने अपने पुत्र कीर्तिवर्मकुमार को राज्यगद्दी पर अधिष्ठित किया और रानी बसन्तश्री मंत्रीगण आदि के साथ दीक्षा ग्रहण की । दीर्घकाल तक विशद्ध संयम की आराधना करता हुआ तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन करनेवाले बीस स्थानों की आराधना की और अन्तिम समय में पर्वत की विशाल शिला पट्ट पर पादोपगमन अनशन किया । दो मास का अनशन पूर्ण कर शुभ ध्यान को ध्याते हुए श्रीवर्मकुमार मुनि स्वर्गवासी हए और प्राणत कल्प में महद्धिक देव बने। हरिवंश उत्पत्ति-- वत्स देश की कोशाम्बी नाम की नगरी में मुमुख नाम का राजा राज्य करता था । एक बार बसन्त ऋतु में वह क्रीड़ा करने के लिए उद्यान में गया। रास्ते में उसने मालीकूविन्दवीरक की पत्नी वनमाला को देखा। वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001564
Book TitleMunisuvratasvamicarita
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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