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________________ ( ८१ ) बताई गई है । और इसीलिए ऐसा माननेको जी चाहता है कि कहीं श्वे० साधुओंको संग्रह करनेकी दृष्टिसे प्रथमोत्कृष्ट श्रावककी वैसी चर्याका वर्णन न किया हो ? श्वेताम्बरीय साधुओंके गोचरी - विधानमें ५-७ घरोंसे थोड़ी-थोड़ी मात्रामें भिक्षा लानेका अवश्य विधान है । और वह आज तक प्रचलित है । स्वामी समन्तभद्रने ग्यारहवीं प्रतिमाका जो स्वरूप वर्णन किया है, वह इस प्रकार हैगृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ ( श्री० भा० १ पृ० १८ श्लोक १४७) इस पद्यका एक-एक पद अतिमहत्त्वपूर्ण है । पद्यके प्रथम चरणके अनुसार इस प्रतिमाधारीको घरका त्याग कर वन में मुनिजनोंके पास जाना आवश्यक है, दूसरे चरण के अनुसार किन ही नवीन व्रतोंका ग्रहण करना भी आवश्यक है । तीसरे चरण के अनुसार भिक्षावृत्तिसे भोजन करना और तपश्चरण करना आवश्यक है और चौथे चरणके 'चेलखण्डधरः' पदके अनुसार वह उत्कृष्ट प्रतिमाधारी वस्त्र -खण्ड धारण करता है । उक्त पथके दो पद खास तौरसे विचारणीय हैं- पहला- 'भेक्ष्याशन' और दूसरा 'चेलखण्डधर' । दो-चार घरसे भिक्षा मांगकर खाना 'भैक्षाशन' कहलाता है और कमर पर वस्त्रके टुकड़ेको बाँधना 'चेलखण्ड' धारण है । प्राचीन कालमें श्वेताम्बरीय साधु केवल कमर पर ही वस्त्रखण्ड धारण करते थे । पीछे-पीछे उनमें वस्त्रोंका परिमाण बढ़ता गया है। संभव है कि वसुनन्दिके समय तक उक्त दोनोंका प्रचार रहा हो इसलिए प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिए उन्होंने ५-७ घरोसे भिक्षा लानेका विधान किया है । स्वामी समन्तभद्रके उक्त 'भेदयाशन' के विधानकी पुष्टि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाके 'जो वकोडिविसुद्ध भिक्खायदणेण भुंजदे भोञ्ञ' (भा० १ पृ० २८ गाथा ९० ) वाक्यसे भी होती है । इसका अर्थ है कि जो अपने योग्य नौ कोटिसे विशुद्ध भोजनको भिक्षाचरणसे प्राप्त कर खाता है, वह उद्दिष्ट आहार -विरत है । श्वे ० ० आगम सूत्रोंके अनुसार ग्यारहवीं प्रतिमाका नाम 'श्रमणभूत प्रतिमा' है और स्वामी समन्तभद्रके अनुसार ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक 'श्रमण' (साधु) जैसा हो ही जाता है । श्वे० परम्परामें साधुके दो कल्प हैं—स्थविर कल्प और जिनकल्प । उनकी मान्यता है कि वर्तमान में 'जिनकल्प' विच्छिन्न हो गया है और श्रावकोंकी प्रतिमाधारणकी परम्परा भी विच्छिन्न हो गई है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि 'श्रमणभूत प्रतिमा' के धारण करनेवालोंका संग्रह उन्होंने स्थविर कल्पमें कर लिया है और स्थविर कल्पी साधु के लिए वस्त्र धारण करनेका विधान कर सचेल साधुको भी स्थविरकल्पी कहा जाने लगा है । ९. भावक - प्रतिमाओंका आधार श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका आधार क्या है, और किस उद्देश्यकी पूर्ति के लिए इनकी कल्पना की गयी है, इन दोनों प्रश्नोंपर जब हम विचार करते हैं, तो इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि प्रतिमाओंका आधार शिक्षाव्रत है और शिक्षाव्रतोंका मुनिपदकी प्राप्ति रूप जो उद्देश्य है, वही इन प्रतिमाओंका भी है । ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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