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________________ ( ८० ) अब हमें देखना यह है कि वे कौनसे प्रबल प्रमाण उनके सामने विद्यमान थे, जिनके आधारपर उन्होंने उक्त प्रकारका वर्णन किया ? सबसे पहले हमारी दृष्टि उक्त प्रकरणके अन्तमें कही गई गाथापर जाती है, जिसमें कहा गया है कि 'इस प्रकार मैंने ग्यारहवें स्थानमें सूत्रानुसार दो प्रकारके उद्दिष्टपिंडविरत श्रावकका वर्णन संक्षेपसे किया ।' (देखो गाथा नं० ३१३) । इस गाथामें दिये गये दो पदोंपर हमारी दृष्टि अटकती है । पहला पद है सूत्रानुसार', जिसके द्वारा उन्होंने अपने प्रस्तुत वर्णनके स्वकपोल-कल्पितत्वका परिहार किया है। और दूसरा पद है 'संक्षेपसे' जिसके द्वारा उन्होंने यह भाव व्यक्त किया है कि मैंने जो उद्दिष्ट-पिंडविरतका इतना स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किया है, उसे कोई 'तिलका ताड़' या 'राईका पहाड़' बनाया गया न समझे, किन्तु आगम-सूत्रमें इस विषयका जो विस्तृत वर्णन किया गया है, उसे मैंने 'सागरको गागरमें भरने के समान अत्यन्त संक्षेपसे कहा है । अब देखना यह है कि वह कौन-सा सूत्र-ग्रन्थ है, जिसके अनुसार वसनन्दिने उक्त वर्णन किया है ? उनके उपासकाध्ययनपर जब हम एक बार आद्योपान्त दृष्टि डालते हैं तो उनके द्वारा बार-बार प्रयुक्त हुआ 'उवासयज्झषण' पद हमारे सामने आता है। वसुनन्दिके पूर्ववर्ती आचार्य अमितगति, सोमदेव और भगवज्जिनसेनने भी अपने-अपने ग्रन्थोंमें 'उपासकाध्ययन' का अनेक बार उल्लेख किया है। उनके उल्लेखोंसे इतना तो अवश्य ज्ञात होता है कि वह उपासकाध्ययन सूत्र प्राकृत भाषामें रहा है, उसमें श्रावकोंके १२ व्रत या ११ प्रतिमाओंके वर्णनके अतिरिक्त पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक रूपसे भी श्रावक-धर्मका वर्णन था। भगवज्जिनसेनके उल्लेख.से यह भी ज्ञात होता है कि उसमें दीक्षान्वयादि क्रियाओंका, षोडश संस्कारोंका, सज्जातित्व आदि सप्त परम स्थानोंका, नाना प्रकारके व्रत-विधानोंका और यज्ञ, जप, हवन आदि क्रियाकांडका समंत्र सविधि वर्णन था । वसुनन्दि-प्रतिष्ठागठ, जयसेन प्रतिष्ठापाठ और सिद्धचक्रपाठ आदिके अवलोकनसे उपलब्ध प्रमाणोंके द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि उस उपासकाध्ययनमें क्रियाकांडसम्बन्धी मंत्र तक प्राकृत भाषामें थे। इतना सब होनेपर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि उक्त सभी आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट उणसकाध्ययन एक ही रहा है । यदि सभीका अभिप्रेत उपासकाध्ययन एक ही होता, तो जिनसेनसे सोमदेवके वस्तु-प्रतिपादनमें इतना अधिक मौलिक अन्तर दृष्टिगोचर न होता । यदि सभीका अभिप्रेत उपासकाध्ययन एक ही रहा है, तो निश्चयतः वह बहुत विस्तृत और विभिन्न विषयोंको चर्चाओंसे परिपूर्ण रहा है, पर जिनसेन आदि किसी भी परवर्ती विद्वान्को वह अपने समग्र रूपमें उपलब्ध नहीं था। हाँ, खंड-खंड रूपमें वह यत्र-तत्र तत्तद्विषयके विशेषज्ञोंको स्मृत या उनके पास अवश्य रहा होगा और संभवतः यही कारण रहा है कि जिसे जो अंश उपलब्ध रहा, उसने उसीका ग्रन्थमें उपयोग किया। दि. साहित्यमें अन्वेषण करनेपर भी ऐसा कोई आधार नहीं मिलता है जिससे कि प्रथमोत्कृष्ट श्रावककी उक्त चर्या प्रमाणित की जा सके । हाँ, बहुत सूक्ष्म रूपमें कुछ बीज अवश्य उपलब्ध हैं। पर जब वसुनन्दि कहते हैं कि मैंने उक्त कथन संक्षेपसे कहा है, तब निश्चयतः कोई विस्तृत और स्पष्ट प्रमाण उनके सामने अवश्य रहा प्रतीत होता है। कुछ विद्वान् उक्त चर्याका विधान शद्र-जातीय उत्कृष्ट श्रावकके लिए किया गया बतलाते हैं, पर वसूनन्दिके शब्दोंसे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है। श्वेताम्बरीय आगम-साहित्यसे उक्त चर्याकी पुष्टि अवश्य होती है जो कि साघुके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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