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________________ ( ७६ ) और सदा अनंग-क्रीड़ाका परित्यागी है, वह स्थूल ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्याणुव्रतका धारी है । (देखो - - भाग १ प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा नं० २१२ ) । इस स्थितिमें स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि • वसुनन्दिने समन्तभद्रादि- प्रतिपादित शैलीसे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप न कहकर उक्त प्रकारसे क्यों कहा? पर जब हम उक्त श्रावकाचारोंका पूर्वापर अनुसन्धानके साथ गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि समन्तभद्रादिने श्रावकको अणुव्रतधारी होनेके पूर्व सप्तव्यसनोंका त्याग नहीं कराया है, अतः उन्होंने उक्त प्रकारसे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहा है । पर वसुनन्दि तो प्रथम प्रतिमाधारीको ही सप्तव्यसनोंके अन्तर्गत जब परदारा और वेश्यागमन रूप दोनों व्यसनोंका त्याग करा आये हैं, तब द्वितीय प्रतिमामें उनका दुहराना निरर्थक हो जाता है । यतः द्वितीय प्रतिमाधारी पहलेसे ही परस्त्री त्यागी और स्वदार- सन्तोषी है, अतः उसका यही ब्रह्मचर्य - अणुव्रत है कि वह अपनी स्त्रीका भी पर्वके दिनोंमें उपभोग न करे और अनंगक्रीड़ाका सदा के लिए परित्याग करे। इस प्रकार वसुनन्दिने पूर्व सरणिका परित्याग कर जो ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहनेके लिए शैली स्वीकार की है, वह उनकी सैद्धान्तिक - विज्ञता के सर्वथा अनुकूल है । पं० आशाधरजी आदि जिन परवर्ती श्रावकाचार - रचयिताओंने समन्तभद्र, सोमदेव और वसुनन्दिके प्रतिपादनका रहस्य न समझकर ब्रह्मचर्याणुव्रतका जिस ढंगसे प्रतिपादन किया है और जिस ढंगसे उनके अतीचारोंकी व्याख्या की है, उससे वे स्वयं स्ववचन- विरोधी बन गये हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है : उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व प्रतिमाओंका अविकल रूपसे पूर्ण शुद्ध आचरण अत्यन्त आवश्यक है, इसीलिए समन्तभद्रने 'स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा:' ' और सोमदेव ने 'पूर्वपूर्वव्रतस्थिताः' कहा है । पर पं० आशाधरजी उक्त बातसे भली-भाँति परिचित होते हुए और प्रकारान्तरसे दूसरे शब्दोंमें स्वयं उसका निरूपण करते हुए भी दो-एक स्थलपर कुछ ऐसा वस्तुनिरूपण कर गये हैं, जो पूर्वापर-क्रमविरुद्ध प्रतीत होता है । उदाहरणार्थ -सागारधर्मामृतके तीसरे अध्यायमें श्रावककी प्रथम प्रतिमाका वर्णन करते हुए वे उसे जुआ आदि सप्तव्यसनोंका परित्याग आवश्यक बतलाते हैं और व्यसन त्यागीके लिए उनके अतिचारोंके परित्यागका भी उपदेश देते हैं, जिसमें वे एक ओर तो वेश्याव्यसनत्यागीको गीत, नृत्य, वादित्रादिके देखने, सुनने और वेश्याके यहाँ जाने-आने या संभाषण करने तकका प्रतिबन्ध लगाते हैं, तब दूसरी ओर वे ही इससे आगे चलकर चौथे अध्यायमें दूसरी प्रतिमाका वर्णन करते समय ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतीचारोंकी व्याख्यामें भाड़ा देकर नियत कालके लिए वेश्याको भी स्वकलत्र बनाकर उसे सेवन करने तकको अतीचार ४ १. देखो - रत्नकरण्डक, श्लोक १३६ । २. अध्यधिव्रतमारोहेत्पूर्वपूर्वव्रतस्थिरताः । सर्वत्रापि समाः प्रोक्ताः ज्ञान-दर्शनभावनाः ॥ - यशस्ति० आ० ८ । ३. देखो – सागारधर्मामृत अ० ३, श्लो० १७ ४. त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्ति वृथायां षिङ्गसंगतिम् । नित्यं पण्यांगनात्यागी तद्गेहगमनादि च ॥ टीका - तौर्यत्रिकासक्तिगीतनृत्यवादित्रेषु सेवानिबन्धनम् । वृथाट्यां— प्रयोजनं विना विचरणम् । तद्गेहगमनादि - वेश्यागृहगमन - संभाषण - सत्कारादि । - ( सागारध० अ० ३, श्लो० २० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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