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________________ ( ७५ ) अष्टमूलगुणोंके पृथक् प्रतिपादनका कोई स्वारस्य नहीं रह जाता है। उनकी इस वर्णन-शंलीसे मुलगुण मानने और न माननेवाली दोनों परम्पराओंका संग्रह हो जाता है। माननेवाली परम्पराका संग्रह तो इसलिए हो जाता है कि मूलगुणोंके अन्तस्तत्त्वका निरूपण कर दिया है और मूलगुणोंके न माननेवाली परम्पराका संग्रह इसलिए हो जाता है कि मूलगुण या अष्टमूलगुण ऐसा नामोल्लेख तक भी नहीं किया है। उनके इस प्रकरणको देखनेसे यह भी विदित होता है कि उनका झकाव सोमदेव और देवसेन-सम्मत अष्ट मूलगुणोंकी ओर रहा है, पर प्रथम प्रतिमाधारीको रात्रिभोजनका त्याग आवश्यक बता कर उन्होंने अमितगतिके मतका भी संग्रह कर लिया है। अन्तिम मुख्य प्रश्न अतीचारोंके न वर्णन करनेके सम्बन्धमें है। यह सचमुच एक बड़े आश्चर्यका विषय है कि जब उमास्वातिसे लेकर अमितगति तकके वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती सभी आचार्य एक स्वरसे व्रतोंके अतीचारोंका वर्णन करते आ रहे हों, तब वसुनन्दि इस विषयमें सर्वथा मौन धारण किये रहें और यहाँ तक कि समग्र ग्रन्थ भरमें अतीचार शब्दका उल्लेख तक न करें। इस विषयमें विशेष अनुसन्धान करनेपर पता चलता है कि वसनन्दि ही नहीं, अपित न्दिपर जिनका अधिक प्रभाव है ऐसे अन्य अनेक आचार्य भी अतीचारोंके विषयमें मौन रहे हैं। आचार्य कुन्दकुन्दने चारित्र-पाहुडमें जो श्रावकके व्रतोंका वर्णन किया है, उसमें अतीचारका उल्लेख नहीं है । स्वामि-कात्तिकेयने भी अतीचारोंका कोई वर्णन नहीं किया है। इसके पश्चात् आचार्य देवसेनने अपने प्रसिद्ध ग्रन्य भावसंग्रहमें जो पाँचवें गुणस्थानका वर्णन किया है वह पर्याप्त विस्तृत है, पूरी २४९ गाथाओंमें श्रावक धर्मका वर्णन है, परन्तु वहाँ कहीं भी अतीचारोंका कोई जिक्र नहीं है। इस सबके प्रकाशमें यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस विषयमें आचार्योंकी दो पराम्पराएँ रही हैंएक अतीचारोंका वर्णन करनेवालोंकी, और दूसरी अतीचारोंका वर्णन न करनेवालोंकी। उनमेंसे आचार्य वसुनन्दि दुसरी परम्पराके अनुयायी प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपनी गुरुपरम्पराके समान स्वयं भी अतीचारोंका कोई वर्णन नहीं किया है। अब ऊपर सुझाई गई कुछ अन्य विशेषताओंके ऊपर विचार किया जाता है १- ( अ ) वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती श्रावकाचार-रचयिताओंमें समन्तभद्रने ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप स्वदार सन्तोष या परदारा-गमनके परित्याग रूपसे किया है। सोमदेवने उसे और भी स्पष्ट करते हुए 'स्ववधू और वित्तस्त्रो' (वेश्या) को छोड़कर शेष परमहिला-परिहार रूपसे वर्णन किया है। परवर्ती पं० आशाधरजी आदिने 'अन्यस्त्री और प्रकटस्त्री' (वेश्या) के परित्याग रूपसे प्रतिपादन किया है। पर वसुनन्दिने उक्त प्रकारसे न कहकर एक नवीन ही प्रकारसे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहा है। वे कहते हैं कि 'जो अष्टमी आदि पर्वोके दिन स्त्री-सेवन नहीं करता है १. देखो भाग १, प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा नं० ५७-५८ । २. देखो भाग १, प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा नं० ३१४ । ३. न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । ___सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥-रत्नक० श्लो० ५९ ४. वधू-वित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ।।—यशस्ति० आ० ७ ५. सोऽस्ति स्वदारसन्तोषी योऽन्यस्त्री-प्रकटस्त्रियो । न गच्छत्यंहसो भीत्या नान्यर्गमयति त्रिधा ॥-सागार० आ० ४ श्लो० ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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