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श्रावकाचार संग्रह
शब्दार्थोभयदुष्टं यद् व्यधाय्यत्र मया पदम् । सद्भिस्ततस्तदुत्सार्य निधेयं तत्र सुन्दरम् ॥२४॥ जीयाच्छोजिनशासनं सुमतयः स्युः क्षमाभुजोऽर्हन्नताः सर्वोऽप्यस्तु निरामयः सुखमयो लोकः सुभिक्ष्यादिभिः । सन्तः सन्तु चिरायुषोऽमलधियो विज्ञातकाव्यश्रमाः शास्त्रं चेदममी पठन्तु सततं यावत्रिलोकोस्थितिः ॥२५॥ यदेतच्छास्त्रनिर्माण मयाऽगोऽल्पधिया कृतम् । क्षन्तव्यमपरागैर्मे तदागः सर्वसाधुभिः ॥२६॥
( इति ग्रन्थकार-प्रशस्तिः ) इस काव्य में मेरे द्वारा जो कोई शब्द-दोष, अर्थ-दोष या शब्द-अर्थ इन दोनों में ही कोई दोष युक्त पद रचा गया हो तो सज्जन पुरुष उसे दूर करके वहाँ पर निर्दोष सुन्दर पद स्थापित करें, (ऐसी मेरी प्रार्थना है) ।। २४ ॥
इस संसार में जब तक तीनों लोक अवस्थित हैं, तब तक श्री जिन शासन सदा जीवित एवं जयवन्त रहे, राजा लोग सुमतिशाली और अर्हद्-भक्त होवें, सभी लोग नीरोग रहें, सारा संसार सुभिक्ष आदि से सुखी रहे, सज्जन पुरुष चिरायुष्क होवें, तथा काव्य-रचना के श्रम को जानने वाले निर्मल बुद्धि के धारक विद्वज्जन इस शास्त्र को निरन्तर पढ़ें ॥ २५ ॥
इस शास्त्र के निर्माण करने में मुझ अल्पबुद्धि ने जो शब्द या अर्थ को अन्यथा लिखनेरूप अपराध किया हो, वह मेरा अपराध वीतरागी सर्व साधुजन क्षमा करें, यह मेरी प्रार्थना है ॥ २६ ॥
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