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________________ २. निषीधिकादण्डक (प्रतिक्रमण पाठ से) णमो जिणाणं, णमो जिणाणं, णमो जिणाणं, णमो णिसीहीए, णमो णिसीहीए, णमो णिसीहीए । णमोत्थु दे, णमोत्थु दे, णमोत्थु दे । अरिहंत, सिद्ध, बुद्ध, णीरय, णिम्मल, सममण, सुमण, सुसमत्थ, समजोग, समभाव, सलघट्टाणं सल्लघत्ताण, णिब्भय, णीराय, णिद्दोस, णिम्मोह, णिम्मम, णिस्संग, णिस्सल्ल, माण-माय-मोसमूरण, तवप्पहावण, गुणरयणसीलसायर, अणंत, अप्पमेय, महदिमहावीर-वड्ढमाण बुद्धि-रिसिणो चेदि णमोत्थु दे, णमोत्थु दे, णमोत्थु दे । मम मंगलं अरिहंता य, सिद्धा य, बुद्धा य, जिणा य, केवलिणो य, ओहिणाणिणो य, मणवज्जवणाणिणो य, चउद्दसपुव्वगामिणो य, सुदसमिदिसमिद्धा य, तवो य वारसविहो, तवस्सी य, गुणा य, गुणवंतो य, महरिसी, तित्थं तित्थंकरा य, पवयणं पवयणी य, णाणं णाणी य, दंसणं दसणी य, संजमो संजदा य, विणओ विणीदा य, वंभचेरवासो वंभचेरवासी य, गुत्तीओ चेव गुत्तिमंतो य, मुत्तीओ चेव मुत्तिमंतो य, समिदीओ चेव समिदिमँतो य, ससमय-परसमयविदू, खंतिक्खवगा य खवगा य, खीणमोहा य, बोहियबुद्धा य, बुद्धिमँतो य, चेइयरुक्खा य, चेइयाणि य । । उडढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि, सिद्धिणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वए सम्मेदे उज्जते चपाए पावाए मज्झिमाए हत्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओ वि णिसीहियाओ जिनदेवको नमस्कार है, जिनदेवको नमस्कार है, जिनदेवोंको नमस्कार है । उनके निवासरूप इस जिन-मन्दिरको नमस्कार है, जिन मन्दिरको नमस्कार है, जिन मन्दिरको नमस्कार है । हे अरिहंत, सिद्ध, बुद्ध, नीरज (कर्म-रजरहित), निर्मल, सममन (वीतराग), सुमन, सुसमर्थ, समयोग, शमभाव, शल्य-घट्टक, शल्य-कर्तक, निर्भय, नीराग, निर्दोष, निर्मोह, निर्मम, निःसंग, निःशल्य, मान-माया और मृषावादके मर्दक, तपःप्रभावक, गुणरत्न-शील-सागर, अनन्त, अप्रमेय भगवन्, तुम्हें नमस्कार है। महति महावीर वर्धमान और बुद्धि ऋषीश्वर, तुम्हें नमस्कार है तुम्हें नमस्कार है। लोकमें जो अरिहन्त हैं, सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, जिन हैं, केवली हैं, अवधिज्ञानी हैं, मनःपर्ययज्ञानी हैं, चौदह पूर्ववेत्ता हैं, श्रुत और समितियोंसे समृद्ध हैं, बारह प्रकार का तप है और उनके धारक तपस्वी हैं, चौरासी लाख उत्तर गुण हैं, और उनके धारक जो गुणवन्त साधु हैं, तीर्थ और तीर्थकर हैं, प्रवचन और प्रवचन-कारक हैं, ज्ञान और ज्ञान-धारक हैं, दर्शन और दर्शन-धारक हैं, संयम और संयम-धारक हैं, विनय और विनयवान् हैं, ब्रह्मचर्यवास और ब्रह्मचर्यवासी हैं, गुप्ति और गुप्तिधारक हैं, बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहत्याग और उसके त्यागी हैं, समिति और समिति-धारक हैं, स्वसमय और पर-समयके वेत्ता हैं, शान्तिसे परीषहोंके सहन करनेवाले हैं, और कर्म-क्षपक या क्षमावन्त हैं, क्षपक हैं, क्षीणमोही हैं, बोधित बुद्ध हैं, और बुद्धिऋद्धिके धारक हैं, चैत्यवृक्ष और चैत्य (जिन बिम्ब) हैं, वे सब मेरा मंगल करें। कर्ध्व लोक, मध्यलोक और अधोलोकमें जितने सिद्धायतन हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ, अष्टापद (कैलाश) पर्वत, सम्मेदाचल, ऊर्जयन्तगिरि, चम्पा, मध्यमा, पावा और हस्तिपालिकासभास्थान में जो निषीधिकाएँ है, तथा इनके सिवाय जीवलोक (ढाईद्वीप) में अन्य जितनी भी निषोधिकाएं हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता है। ईषत्प्रारभार नामको आठवों पृथिवीके उपरिमतल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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