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________________ महत्ता, दूसरेमें सम्यग्दर्शन और उसके विषयभूत सप्त तत्त्वोंका एवं पुण्य-पापका विस्तृत वर्णन. तीसरेमें सत्यार्थ देव, गुरु, धर्म और कुदेव, कुगुरु, कुधर्मका विस्तृत वर्णन है। चौथे परिच्छेदसे लेकर दशवें परिच्छेद सम्यक्त्वके आठों अंगोंमें प्रसिद्ध पुरुषोंके कथानक दिये गये हैं। ग्यारहवें परिच्छेदमें सम्यक्त्वकी महिमाका वर्णन है। तेरहवें परिच्छेदमें अष्टमूलगुण, सप्तव्यसन, हिंसाके दोषों और अहिंसाके गुणोंका वर्णनकर अहिंसाणुव्रतमें प्रसिद्ध मातंगका और हिंसा-पापमें प्रसिद्ध धनश्रीका कथानक दिया गया है। इसी प्रकार तेरहवें परिच्छेदसे लेकर सोलहवें परिच्छेदतक सत्यादि चारों अणुव्रतोंका वर्णन और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के तथा असत्यादि पापोंमें प्रसिद्ध पुरुषोंके कथानक दिये गये हैं। सत्तरहवें परिच्छेदमें तीनों गुणवतोंका वर्णन है । अठारहवें परिच्छेदमें देशावकाशिक और सामायिक शिक्षाव्रतका तथा उसके ३२ दोषोंका विस्तृत विवेचन है। उन्नीसवें परिच्छेदमें प्रोषधोपवासका और बीसवें परिच्छेदमें अतिथिसंविभागका विस्तारसे वर्णन किया गया है। इक्कीसवें परिच्छेदमें चारों दानोंमें प्रसिद्ध व्यक्तियों के कथानक हैं। बाईसवें परिच्छेदमें समाधिमरणका विस्तृत निरूपणकर तीसरी, चौथी, पाँचवीं और छठी प्रतिमाका स्वरूप बताकर रात्रि भोजनके दोषोंका वर्णन किया गया है । तेसईवें परिच्छेदमें सातवीं, आठवीं और नवमी प्रतिमाका स्वरूप वर्णन है । चौबीसवें परिच्छेदमें दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाका वर्णन करके अन्तमें छह आवश्यकोंका निरूपण किया गया है। परिचय और समय 'सकलकोत्ति रासके अनुसार इनका जन्म वि० सं० १४४३ में हुआ था। इनके पिताका नाम कर्मसिंह और माताका नाम शोभा था। ये हूमड़ जातिके थे और अणहिल्लपट्टणके रहनेवाले थे । इनका गृहस्थावस्थाका नाम पूनसिंह या पूर्णसिंह था । जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १३ में प्रकाशित एक ऐतिहासिक पत्रके अनुसार सकलकीति २६ वर्षकी अवस्थातक घरमें रहे । तत्पश्चात् संयम धारणकर ८ वर्षतक गुरुके पास सर्व शास्त्रोंको पढ़ा । वि० सं० १४९९ में आपका समाधिमरण हुआ। इस प्रकार उन्होंने ३४ वर्षकी अवस्थाके पश्चात् जीवनके अन्तिम समयतक ग्रन्थ-रचना की और अनेक स्थानोंपर मूत्ति प्रतिष्ठाएँ की। सकलकीत्तिने प्रत्येक श्रावकको अपने घरमें जिनबिम्बको स्थापित करनेका उपदेश देते हुए यहाँतक लिखा है यस्य गेहे जिनेन्द्रस्य बिम्बं न स्याच्छुभप्रदम् । पक्षिगृहसमं तस्य गेहं स्यादतिपापदम् ॥ ___ अर्थात्-जिसके घरमें शुभ-फल-दायक जिनेन्द्रका बिम्ब नहीं है, उसका घर पक्षियोंके घोंसलेके समान और पाप-दायक है। ___(अ०२ श्लो० १८५) उक्त पत्रसे इनका समय विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दी निश्चित है। १९. गुणभूषण श्रावकाचार-श्री गुणभूषण गुणभूषण-रचित श्रावकाचारका संकलन प्रस्तुत संग्रहके दूसरे भागमें किया गया है। इसके प्रथम उद्देशमें मनुष्यभव और सद्धर्मकी प्राप्ति दुर्लभ बताकर सम्यग्दर्शन धारण करनेका उपदेश दिया गया है, तथा सम्यक्त्वके अंगों और भेदोंका और उसकी महिमाका वर्णन किया गया है। दूसरे उद्देशमें सम्यग्ज्ञानका स्वरूप बताकर मतिज्ञान आदि पाँचों ज्ञानोंका वर्णन किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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