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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार प्रत्यक्षेण प्रमाणेन लक्ष्यते न जनैर्यदि । तन्नास्तिक तवाङ्गे कि नास्ति बृद्धिः कुरूत्तरम् ॥८६ अप्रत्यक्षा तवाम्बा चेद् दूरदेशान्तरं गता । जीवत्यपि मृता हन्त नास्ति नास्तिक सा कथम् ॥८७ तिलकाष्ठपय: पुष्पेष्वासवः क्रमशो यथा । तैलाग्निघृत सौरम्याण्येवमात्मापि विग्रहे ॥८८ अस्त्येव नियतो जीवो लक्षणैर्ज्ञायते पुनः । भूतावेशवशान्नित्यं जातिस्मरागतस्तथा ॥ ८९ पयःपानं शिशौ भीतिः सङ्कोचिन्यां च मैथुनम् । अशोकेऽर्थग्रहो विल्वे जीवसंज्ञा चतुष्टयम् ॥९० अन्तराये त्रुटे (?) ज्ञानं कियत्क्वापि प्रवर्तते । मतिश्रुतिप्रभृतिकं निर्मलं केवलावधिः ॥ ९१ इन्द्रियापेक्षया प्रायः स्तोकमस्तोकमेव च । चराचरेषु जोवेषु चैतन्यमपि निश्चितम् ॥ ९२ त्रिकालविषयव्यक्तं चिन्ता सन्तानधारकम् । नानाविकल्पसङ्कल्परूपं चित्तं च वर्तते ॥९३ नास्तिकस्यापि नास्त्येव प्रसरः प्रश्नकर्मणि । नास्तिकत्वाभिमानस्तु केवलं बलवन्तरः ॥९४ ध्यानं प्रभवन्ति दुःखविषमव्याध्यादयः साधयः, सिद्धिः पाणितलस्थितेव पुरतः श्रेयान्सि सर्वाण्यपि । १३१ है ॥ ८५ ॥ नास्तिक, यदि तेरे शरीरमें बुद्धिका अस्तित्व प्रत्यक्ष प्रमाणसे मनुष्योंके द्वारा नहीं जाना जाता है. तो क्या तेरे शरीरमें बुद्धि नहीं है ? इसका उत्तर दो ||८६|| यदि दूरवर्ती देशान्तर को गई हुई तेरी माता लोगोंको प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देती है तो क्या वह जीते हुए भी मृत मान ली जावे ? हे नास्तिक, दुःख है कि यदि वह नहीं है, तो वह है, यह कैसे सिद्ध करोगे ॥८७ जिस प्रकार तिलमें तेल, काष्टमें अग्नि, दूधमें घी और फूलोंमें सौरभ क्रमशः पाये जाते हैं, उसी प्रकार शरीर में आत्मा है, प्राण हैं, यह बात भी सिद्ध है ||८८|| अतएव जीव नियत रूपसे है ही, और वह ज्ञान-दर्शनरूप लक्षणोंसे जाना जाता है । यथा भूतावेश देखे जानेसे, भवका जातिस्मरण होनेसे, जन्मे हुए शिशुमें दुग्ध-पानरूप आहार संज्ञा, लजवन्तीमें भय संज्ञा, अशोक वृक्षमें मैथुन संज्ञा और विल्व वृक्षमें धनके ग्रहणरूप परिग्रहसंज्ञा पाई जाती है, सो ये चारों संज्ञाएँ ही उनमें जीवके अस्तित्वको सिद्ध करती हैं ।। ८९-९० ॥ ज्ञानके अन्तरायरूप ज्ञानावरण कर्मके टूटने पर कितना ही ज्ञान किसी भी जीवमें प्रवृत्त होता है । वह ज्ञान मति, श्रुतको आदि लेकर निर्मल केवलज्ञानकी सीमा तक प्रकट होता है ॥ ९१ ॥ इन्द्रियों की अपेक्षा वह ज्ञान प्रायः अल्प और अल्पतर ही होता है। इस प्रकार चर त्रस जीवों और अचर स्थावर जीवोंमें चैतन्य भी निश्चित रूपसे पाया जाता हैं ||१२|| वह चित्त या चैतन्य त्रिकालवर्ती विषयोंको ग्रहण करनेसे व्यक्त है, नाना चिन्ताओंकी सन्तानका धारक है और वह चित्त नाना प्रकारके विकल्पसे प्रवर्तता है ॥ ९३ ॥ (उक्त प्रकारसे आत्माका अस्तित्व सिद्ध हो जानेपर) नास्तिकके भी और आगे प्रश्न करनेमें प्रसार संभव नहीं है। फिर भी 'आत्मा नहीं है' इस प्रकारसे नास्तिकताका अभिमान तो केवल बलवत्तर दुराग्रहमात्र है ||१४|| आत्माका ध्यान करनेवाले पुरुषको दुःख और आधि (मानसिक व्यथा) सहित सभी विषम व्याधियाँ (शारीरिक रोग) पीड़ा देनेको समर्थ नहीं है, अभीष्टकी सिद्धि उसके हस्ततलपर स्थित जैसी ही है, सर्वप्रकारके श्रेयस् (कल्याण) उसके आगे उपस्थित होते हैं, और खोटे कर्मोके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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