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________________ श्रीवकाचार-संग्रह नैधनी मैत्रिका चैव तथा परममैत्रिकाः । चतुःषन्नव च श्रेष्ठा सप्त पञ्च त्रयोऽधमाः ॥७७ राक्षसामरमोक्तगणनक्षत्रकादिकम् । ज्ञेयं ज्योतिष्मतः ख्यातमिदमित्यत्र नोदितम् ।।७८ 'ध्र वं धान्यं जयं नन्दं खरं कान्तं मनोरमम् । सुमुखं दुर्मुखं करं स्वपक्षं धनदं क्षयम् ॥७९ आक्रन्दं विपुलं चैव विजयं चेत्यमूभिदा । गृहस्य स्वस्य नाम्नापि सदृशं च भवेत्फलम् ॥८० यो गुरूणां चतुर्णा स्यात्प्रस्तारश्छन्दसा कृतः । षोडशान्त इमे भेदाः स्युस्तन्नामान्यलिन्दकैः ।।८१ संख्यावाली ताराएँ अधम हैं। शेष तीन अर्थात् एक, दो और आठ संख्यावाली ताराएं सम हैं ॥७५-७७॥ ___ गण तीन प्रकारके होते हैं-राक्षस, देव और मनुष्य । इनका अर्थ ज्योतिष शास्त्रमें प्रसिद्ध है, इसलिये उसका प्रतिपादन नहीं किया ॥७८॥ गृह सोलह प्रकारके होते हे, उनके नाम इस प्रकार हैं-१. ध्रुव, २. धान्य, ३. जय, ४. नन्द, ५. खर, ६. कान्त, ७. मनोरम, ८. सुमुख, ९. दुर्मुख, १०. क्रूर, ११. स्वपक्ष, १२. धनद, १३. क्षय, १४. आक्रन्द, १५. विपुल और १६. विजय । गृहके अपने नामके अनुसार इनका फल होता है ।।७९-८०।। विशेषार्थ--उक्त दो श्लोकोंमें सोलह प्रकारके गृहों (घरों) के जिस फलकी सूचनाकी गई, उसका खुलासा इस प्रकार है --ध्र वगृहमें जय प्राप्त होती है, धान्यमें धान्यका आगमन होता है, जयमें शत्रुओंको जीतता है, नन्दमें सर्वप्रकारको समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं, खर कष्टप्रद होता है, कान्तमें लक्ष्मी प्राप्त होती है तथा आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य और धन-सम्पदा भी मिलती है, मनोरम गृहमें गृहस्वामीका मन सन्तुष्ट रहता है, सुमुखमें राज-सन्मान मिलता है, दुमुखगृहमें सदा कलह होता रहता। क्रूर गृहमें व्याधियोंका भय बना रहता है, स्वपक्षमें वंशकी वृद्धि होती हैं, धनदगृहमें स्वर्ण-रत्नादिकी वृद्धि होती है और गायोंकी भी प्राप्ति होती है, क्षयगृहमें सर्व विनाश होता है । आक्रान्द गृहमें जाति एवं कुटुम्बवालोंकी मृत्यु होती है, विपुलघरमें निरोगता प्राप्त होती है और विजयगृहमें सर्व सम्पत्तियाँ बनी रहती हैं । चार गुरु मात्राओंके संयोगसे छन्दशास्त्रके अनुसार जो प्रस्तार बनते हैं उसके अनुसार उक्त १. धुव-धन्न-जया नंद-खर-कंत-मणोरमा सुमुह-दुमुहा । कूर-सुपक्ख-धणद-खय-आक्कंद-विउल-बिजया गिहा ।।७२।। २. चत्तारि गुरुठविउं लहुओ गुरुहिठि सेस उवरिसमा । ऊणेहिं गुरु एवं पुणो पुणो जाव सव्वलइ ॥७३॥ तं धुव धन्नाइणं पुब्वाइ-लहूहि साल नायब्वा । गुरुवाणि मित्ती नामसमं हवइ फलमेसि ।।७४।। (वास्तुसार) * ध्रुवे जयमाप्नोति धन्ये धान्यागमो भवेत् । जये सपत्लाज्जयति नन्दे सर्वाः समृद्धयः ॥१॥ खरमायासदं वेश्म कान्ते च लभते श्रियम् । आयुरारोग्यमश्वयं तथा वित्तस्य सम्पदः ।।२।। मनोरमे मनस्तुष्टिगुहभतु: प्रकीर्तिता । सुमुखे राजसन्मानं दुर्मुखे कलहः सदा ॥४॥ क्रूर-व्याधि-भयं क्रूरे स्वपक्षं गोत्रवृद्धिकृत् । धनदे हेमरत्नादि गाश्चैव लभते पुमान् ॥५॥ भयं सर्वक्षयं गेहमाक्रन्दं ज्ञातिमृत्युदम् । आरोग्यं विपुले ख्यातिविजये सर्वसम्पदः ॥६॥ (समरांगणसे उद्धृत, वास्तुसार पृ० ३९-४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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