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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार खरो वेश्यागृहे शस्तो ध्वाक्षः शेषकुटीषु तु । वृषः सिंहो गजश्चापि प्रासादपुरवेश्मसु ॥६९ 'आयामे विस्तरहते योऽङ्कः सञ्जायते किल। स मूलराशिविज्ञेयो गृहस्य गणकैः सदा ॥७० अष्टभिर्गुणिते मूलराशावस्मिन् विशारदः । सप्तविंशतिभक्तेऽथ शेषं तद-गहभं भवेत् ॥७१ नक्षत्राष्टभिर्भक्त योऽङ्कः स स्याद गहे व्ययः। पैशाचो राक्षसो यक्षः स त्रिधा स्मयते व्ययम् ॥७२ पैशाचस्तु समाऽऽयः स्याद् राक्षसश्चाधिके व्यये । आयान्न्यूनतरो यक्षो व्ययस्यैषा विचारणा ॥७३ मूलराशौ व्यये क्षिप्ते गृहनामाक्षरेषु च । ततो हरेत्रिभिर्भागं यच्छेषं सोंऽशको भवेत् ॥७४ इन्द्रो यमश्च राजा च गृहांशाश्च त्रयस्त्विमे । गृहभस्वामिभक्यस्य भक्तस्य नवभिः पुनः ७५ यच्छेषं सा भवेत्तारा तारानामान्यमूनि च । जन्म-सम्पद-विपद-क्षेमाः प्रत्यरिः साधनीति च ॥७६ अग्निसे आजीविका करनेवाले सुनार-लोहार आदिके गृहोंपर धूम आय योजित करे। म्लेच्छ आदि जातियोंके घरोंपर श्वान आय देना चाहिए ॥६८|| वेश्याके घरपर खर आय उत्तम है और शेष जातिको कुटियोंपर ध्वाक्ष ( काक ) आय देना चाहिए। राजप्रासादोंपर एवं नगरोंके उत्तम भवनोंपर वृषभ, सिंह और गज आय श्रेष्ठ है ॥६९।।। गृहकी लम्बाईको विस्तारके प्रमाणसे गुणित करनेपर जो अंक प्राप्त होता है, वह गणना करनेवाले ज्योतिषियोंको सदा गृहको मूलराशि जानना चाहिए ॥७०॥ इस मूलराशिमें विद्वानोंके द्वारा आठसे गुणा करनेपर और सत्ताईससे भाग देनेपर जो शेष रहे वह गृहका नक्षत्र होता है ॥७१॥ नक्षत्रके अंकमें आठसे भाग देनेपर जो अंक प्राप्त हो वह गृह-निर्माणमें व्यय सूचक होता है। यह व्यय तीन प्रकारका कहा गया है-पैशाच, राक्षस और यक्ष व्यय ॥७२॥ इनमें पेशाच व्यय समान आयका सूचक है, राक्षस अधिक व्ययका सूचक है और यक्ष आयसे अतिहीन व्ययका सूचक है। व्ययके विषयमें यह ज्योतिष विचारणा है ।।७३|| मूलराशिमें व्ययके क्षेपण करनेपर और गृहके नामवाले अक्षरोंके क्षेपण करनेपर तीनसे भाग देवे, जो शेष रहे, वह अंशक (क्षेत्रफल ) होता है ॥७४।। इन्द्र, यम और राजा ये तीन प्रकारके अंश होते हैं, गृहका नक्षत्र और गृहस्वामीका नक्षत्र इन दोनोंके जोड़नेपर जो राशि आवे, उसमें नौसे भाग देनेपर जो शेष बचे, उसे 'तारा' कहते हैं। (वे नी होती हैं:-) १. जन्म, २. सम्पद्, ३. विपद्, ४. क्षेम, ५. प्रत्यरि, ६. साधक, ७. नैधनी, ८. मैत्रिका और ९. परममैत्रिका। चार, छह और नौ संख्यावाली ताराएं श्रेष्ठ हैं, सात, पाँच और तीन १. दोहं वित्थर गुणियं ज जायइ मूलरासितं नेयं । अट्ठगुणं उडुमत्तं गिहनक्खत्तं हवइ सेसं ॥५८॥ गिहरिक्खं चउगुणियं नवमत्तं लक्षु मुत्तरासीओ । गिहरासि सामिरासी सडट्ठ दु दुबालसं असुहं ॥५९॥ वसुभत्त रिक्खसेसं वयं तिहा जक्ख-रक्खस-पिसाया । आउ अंकाउ कमसो हीणाहियसयं मुणयव्वं ॥६॥ ___ जक्ववओ विद्धिकरो घणणासं कुणइ रक्खसवओ य । मज्झिमबओ पिसाओ तहय जमंसं च वज्जिज्जा ॥६॥ २. मूलरासिस्स अंक गिहनामक्खर वयंकसंजुत्तं । तिविहुसु सेस बंसा इंदस-जमंस-रायंसा ॥२॥ गेहमसामियपिंडं नवभत्तं सेस छ-चउ-नव सुहया । मज्झिम दुग इग अट्ठा ति पंच सघइमा तारा ॥६३॥ (वास्तुसार, गृह प्रकरण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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