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बावकाचार-संग्रह मांसाशनं स्वजातेश्च विनौतून भुजगांस्तिमान् । काकादेरपि भक्ष्यस्य गोपनं शस्यहानये ॥२. बन्तःपुर-पुरानीक-कोषामत्यपुरोषसाम् । राजपुत्र प्रकृत्यावेरप्यरिष्टफलं वदेत् ॥२१ पलमासर्तुषण्मासवर्षमध्येऽह्नि चेत्फलम् । नष्टं तद्-व्यर्थमेव स्यादुत्पन्ने शान्तिरिष्यते ॥२२ दोस्वैर्भावनिदेशस्य निमित्तं शकुनाः स्वराः । दिव्यो ज्योतिषमानादिः सर्व व्यभिचरेच्छुभम् ॥२३ प्रवासयन्ति प्रथम स्वदेवान् परदेवताः । दर्शयन्ति निमित्तानि भङ्ग भाविनि चान्यथा ॥२४ "विशाखा-भरणी-पृष्याः पूर्वफा-पूर्वभा-मघाः । कृत्तिका-सप्तभिधिष्ण्यैराग्नेयं मण्डलं मतम् ॥२५ चित्रा हस्ताश्विनी-स्वातिर्मार्गशीर्ष पुनर्वसू । उत्तराफाल्गुनीत्येतद् भवेद्वायव्यमण्डलम् ॥२६ 'पूर्वाषाढोत्तराषाढाश्लेषाऽऽामूलरेवती । शतभिषक् चेति नक्षत्रर्वारुणं मण्डलं भवेत् ॥२७ 'अनुराधाभिजिज्ज्येष्ठोत्तराषाढा धनिष्ठिका । रोहिणो श्रवणोऽप्येभिःमहिन्द्रमण्डलम् ॥२८ एषत्पातोदये लोकाः सर्वे मुदितमानसाः । सन्धिं कुर्वन्ति भूमीशाः सुभिक्षं मङ्गलोदयः ॥२९ उल्कापातादयः सर्वेऽमीषु स्व-स्वफलप्रदाः । वर्षाकालं विना ज्ञेया वर्षाकाले तु वृष्टिदाः ॥३० माहेन्द्रं समरात्रेण सद्यो वारुणमण्डलम् । आग्नेयमघमासेन फलं मासेन वायवम ॥३१ सुभिक्ष क्षेममारोग्यं राज्ञां सन्धिः परस्परम् । अन्त्यमण्डलयो यं तद्विपर्ययमाघयोः ॥३२
स्वजातिवाले पशु-पक्षीका स्वजातिवाले पशु-पक्षियों द्वारा मांसका खाना, बिल्लीके सिवाय अन्यके द्वारा सांपोंका खाया जाना, और काक आदिके द्वारा भक्षण करने योग्य पदार्थका गुप्त रखना, धान्यकी हानिके लिए होता है ॥२७॥ अन्तःपुर, नगर-सैन्य, कोष-रक्षक, मंत्री और पुरोहितोंकी प्रकृति विकार आदिके अरिष्ट-सूचक उत्पातोंके फलको ज्योतिषी कहे ॥२१॥ जिस अरिष्ट या उत्पातका फल एक पक्ष, मास, दो मास, छह मास, या वर्षके मध्यवर्ती दिनमें होना संभव हो, वह नष्ट या व्यर्थ ही होता है। फिर भी उस उत्पातके होनेपर शान्ति करना कहा गया है ॥२२॥ दुस्थित अर्थात् प्रकृतिसे विपरीत–को बतानेवाले निमित्त, शकुन, स्वर और दिव्य (अन्तरिक्ष) ज्योतिष-मान आदि सर्वशुभ कार्य व्यभिचारको प्राप्त होते हैं ॥२३॥ अन्य देवता पहिले अपने कुलक्रमागत देवोंको प्रवासित करते हैं, पुनः भविष्य-सूचक निमित्तोंको दिखाते है। तथा आगामी कालमें होनेवाले शुभ कार्यके भंगमें अन्यथा भी निमित्त दिखलाते हैं ॥२४॥
विशाखा, भरणी, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपदा, मघा और कृत्तिका इन सात नक्षत्रोंके द्वारा विद्वज्जनोंने आग्नेय मण्डल माना है ॥२५॥ चित्रा, हस्त, अश्विनी, स्वाति, मृगशिरा, पुनर्वसू और उत्तराफाल्गुनी इन सात नक्षत्रोंका वायव्यमण्डल होता है ।।२६॥ पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, आश्लेषा, आर्द्रा, मूल. रेवतो और शतभिषा इन सात नक्षत्रोंसे वारुण मण्डल होता है ॥२७॥ अनुराधा, अभिजित, ज्येष्ठा, उत्तराषाढा, धनिष्ठा रोहिणी और श्रवण इन सात नक्षत्रोंसे माहेन्द्रमण्डल होता है ॥२८॥
__इन उपर्युक्त मण्डलोंमें उत्पात होनेपर सब लोग आनन्दसे रहते हैं, राजा लोग परस्परमें सन्धि करते हैं, देशमें सुभिक्ष और आनन्द मंगल होता है ॥२९॥ उल्कापातादिक भी इनमें अपनेअपने फलको वर्षाकालके बिना देते हैं और वर्षाकालमें तो वृष्टि करते ही हैं ॥३०॥ माहेन्द्रमण्डलका फल सात दिनमें, वारुणमण्डलका फल शीघ्र ही, अग्निमण्डलका फल अर्धमासमें और वायुमण्डलका फल एक मासमें होता है ॥३१॥ सुभिक्ष, क्षेम, आरोग्य और राजाओंको परस्पर १. वर्षप्रयोग १, ३३ । २. वर्षप्रबोष १, ४२। ३. वर्षप्रबोष १, ४६। ४ वर्षप्रबोध १, ५.।
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