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अथ सप्तमोल्लासः
दुष्प्राप्यं प्राप्य मानुष्यं कार्यं तत्किञ्चिदुत्तमैः । मुहूर्तमेकमेकस्य नैव याति वृथा तथा ॥१ दिवा यामचतुष्केण कार्य किमपि तन्नरेः । निश्चिन्तहृदयैर्येन यामिन्यां सुप्यते सुखम् ॥२ तत्किञ्चिदष्टभिर्मासैः कार्यं कर्म विवेकिना । एकत्र स्थीयते येन वर्षाकाले यथा सुखम् ॥३ यौवनं प्राप्य सर्वार्थसारसिद्धिनिबन्धनम् । तत्कुर्यान्मतिमान् येन वार्षिको सुखमश्नुते ॥४ अर्जनीयं कलावस्तत्किञ्चिज्जन्मनामुना । ध्रुवमासाद्यते येन शुद्धं जन्मान्तरं पुनः ॥५ प्रतिवर्ष सहस्रेण निजवित्तानुमानतः । पूजनीया सधर्माणो धर्माचार्यश्च षोमता ॥६ गोत्रवृद्धास्तथा शक्त्या सन्मान्या बहुमानतः । विधेया तीर्थयात्रा च प्रतिवर्षं विवेकिभिः ॥७ प्रतिसंवत्सरं ग्राह्यं प्रायश्चित्तं गुरोः पुरः । शोध्यमानो भवेदात्मा येनादर्श इवोज्ज्वल : ॥८ जातस्य नियतं मृत्युरिति ज्ञापयितुं जनो पित्रादिदिवसः कार्यः प्रतिवर्षं महात्मभिः ॥१ इति स्फुटं वर्षविषेयमेतल्लोकोपकाराय मयाऽभ्यधायि । जायेत लोकद्वितयेऽप्यवश्यं यत्कुर्वतां निर्मलता जनानाम् ॥१० इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामिविरचिते श्रावकाचारे वर्षाचार्यो नाम सप्तमोल्लासः ।
यह अतिदुर्लभ मनुष्य- जन्म पाकरके उत्तम जनोंको एक दिनमें एक मुहूर्त भी कुछ वह श्रेष्ठ कार्य करना चाहिए, जिससे कि मनुष्यभवका पाना वृथा नहीं जावे है ॥१॥ दिनके चार पहरों द्वारा पुरुषोंको कोई भी कार्य करना चाहिए, जिससे कि वे रात्रिमें निश्चिन्त हृदय होकर सुख पूर्वक सो सकें ॥ २॥ आठ मासोंके द्वारा विवेकी पुरुषको वह व्यापार सम्बन्धी कार्यं करना चाहिए, जिससे कि वर्षाकालमें वह एक स्थानपर सुखपूर्वक निवासकर सके ||३|| सर्व पुरुषार्थों का सारभूत और आत्म-सिद्धिका कारण स्वरूप यौवन पाकर के बुद्धिमान् मनुष्यको वह कार्य करना चाहिए, जिससे कि वृद्धावस्थामें वह सुख प्राप्त कर सके ||४|| कलावान् पुरुषोंको इस जन्म-द्वारा कुछ ऐसा धर्म-पुण्य उपार्जन करना चाहिए जिससे कि पुनः दूसरा जन्म निश्चित रूपसे शुद्ध उत्तम प्राप्त हो सके ||५||
बुद्धिमान् गृहस्थ पुरुषको प्रतिवर्ष अपने वित्तके अनुमानसे सहस्रोंकी संख्या में साधर्मी बन्धुजनोंको और धर्माचार्यको पूजना चाहिए ||६|| अपने कुल और गोत्रमें जो वृद्धजन हों, उनका अपनी शक्ति के अनुसार बहुत आदरके साथ सन्मान करना चाहिए। इसी प्रकार विवेकी जनोंको प्रतिवर्ष तीर्थयात्रा भी करना चाहिए ||७|| गृहस्थको प्रतिवर्ष गुरुके आगे किये गये पापोंका प्रायश्चित्त भी ग्रहण करना चाहिए, जिससे कि विशुद्ध किया गया आत्मा दर्पणके समान उज्ज्वल होवे ||८|| संसार में जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है, यह बात संसारमें बतलानेके लिए महापुरुषोंको प्रतिवर्षं पिता आदिका श्राद्ध दिवस भी करना चाहिए ॥९॥
इस प्रकार लोकोपकारके लिए मेरे द्वारा कहे गये वर्षके भीतर करनेयोग्य कार्य भले प्रकारसे श्रावकको करना चाहिए, जिनके करनेवाले मनुष्योंकी दोनों लोकोंमें अवश्य ही निर्मलता होवे, अर्थात् दोनों भव सफल होवें ॥ १० ॥
इस प्रकार कुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारमें वर्षके भीतर आचरण करने योग्य कार्योंका वर्णन करनेवाला सप्तम उल्लास समाप्त हुआ ||७ll
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