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________________ RE श्रावकाचार-संग्रह बत्तः स्वल्पोऽपि भवाय स्यादर्थो न्यायसश्चितः । अन्यायानः पुनर्दत्तः पुष्कलोऽपि फलोज्झितः ॥४२ धर्मकर्माविरोधेन सकलोऽपि कुलोचितः । निस्तन्द्रेण विधेयोऽत्र व्यवसायः सुमेधसाम् ॥४३ प्रसूनमिव निर्गन्धं तडागमिव निर्जलम् । कलेवरमिवाजीवं को निःसेवेत निर्धनम् ।।४४ अर्थ एवं ध्रुवं सर्वपुरुषार्थ-निबन्धनम् । तत्रायानाहता ये ते जीवन्तोऽपि शवोपमाः ॥४५ कृष्यादिभिः सदोपायैः सूरिभिः समुपायंते । दयादानादिभिः सम्यग्यन्यधर्म इव ध्रुवम् ॥४६ भारम्भोऽयं महानेव पृथ्वी-कर्षणकर्मणि । सुतीर्थ विनियोगेन विना पापाय केवलम् ॥४७ वापकालं विजानाति भूमिभावं चाकर्षकः । कृषि-साध्यं पथि क्षेत्रं यथेप्सति स वर्धते ॥४८ पशुपाल्यं धियो वृद्ध कुर्वन्नोझेद्दयालुताम् । तत्कृत्येषु स्वयं जाग्रच्छविच्छेदान् विवर्जयेत् ॥४९ श्रेयान् धर्मः पुमर्थेषु स्वोपाय॑स्तदनन्तरम् । तन्नित्यं तौ च समाह्यो कथं दद्यादसङ्ग्रहो ॥५० सङ्ग्रहेऽर्थेऽपि जायेत प्रस्तावे तस्य विक्रयात् । उद्धारेऽनुचितः सोऽपि वैर-विग्रह कारिणि ॥५१ सर्वदा सर्वभाण्डेषु नाणकेषु च शिक्षितः। जानीयात् सर्वभाषाविद् वस्तुसज्ञां वणिग्वरः ॥५२ एकद्वित्रिचतुःसज्ञां तर्जन्याद्यगुलिग्रहे । साङ्गठाना पुनस्तासां समहे पञ्च सञ्जिताः ॥५३ पार्जनका सुन्दर उपाय है ॥४१॥ न्यायसे संचय किया गया धन यदि अल्प परिमाणमें भी दान किया जाय, तो भी वह कल्याणके लिए होता है। किन्तु अन्यायसे प्राप्त धन यदि विपुल परिमाणमें भी दान किया जावे तो भी फलसे रहित होता है ॥४२॥ इसलिए बुद्धिमानोंको प्रमादरहित हो करके धर्म-कर्मके अविरोधसे अपने कुलके उचित सभी व्यवसाय करना चाहिए ॥४३॥ गन्ध-रहित पुष्पके समान, जल-रहित तालाबके समान, और जीव-रहित शरीरके समान धन-रहित पुरुषकी कौन सेवा करेगा? कोई भी नहीं ॥४४॥ सभी पुरुषार्थोंका कारण निश्चयसे धन ही है । जो पुरुष धनोपार्जन करनेमें आदरशील नहीं होते हैं वे जीते हुए भी मृतकके समान हैं ।।४५।। इसलिए बुद्धिमान् लोग सदा ही कृषि आदि न्यायोचित उपायोंके द्वारा धनका उपार्जन करते हैं। जैसे कि धन्य पुरुष दया-दान आदिके द्वारा निश्चयसे धर्मका उपार्जन करते हैं ॥४६॥ यद्यपि पृथ्वीके कर्षण-कर्ममें अर्थात् खेती करने में महा आरम्भ हो है अर्थात् यह महा हिंसाका कार्य है। कृषिसे उपाजित धन उत्तम तीर्थ-पात्र आदिमें दान देनेके विना वह केवल पापके लिए ही है ।।४७॥ कृषि करनेवाला मनुष्य वीज-वपनको और भूमिके भावको जानता है, इसलिए खेतीके मार्गमें कृषि-साध्य खेतको वह जैसा चाहता है, वैसा उसे बढ़ा लेता है ॥४८॥ लक्ष्मीको वृद्धिके लिए गाय आदि पशुओंका पालन करना चाहिए। किन्तु पशु-पालनमें का परित्याग न करे । पशुपालनके कार्यमें स्वयं जागृत (सावधान) रहे और पशुओंके अंगका दान-भेदन आदि कार्योका त्याग करे ॥४९॥ मनुष्यके सभी पुरुषार्थोंमें धर्म-पुरुषार्थ सबसे श्रेष्ठ है और उसके अनन्तर धनका उपार्जन करना भी उत्तम है। इसलिए धर्म और अर्थ इन दो पुरुषार्थो का सदा संग्रह करना चाहिए, क्योंकि धनका संग्रह नहीं करनेवाला पुरुष दूसरेको दान कैसे दे सकेगा? अर्थात् नहीं दे सकेगा ॥५०॥ धन-धान्यादिके संग्रह करने और अवसर आनेपर उसके विक्रयसे भी धनका उपार्जन होता है। किन्तु वैर और विग्रह करनेवाले उधार देनेके धन्धेमें धनका उपार्जन करना अनुचित है ॥५१॥ सर्व प्रकारके भांडों और वस्त्रोंके व्यापारमें शिक्षित हुए उत्तम वैश्यको सभी भाषाओं और वस्तुओंको संज्ञाओं (संकेतों) को भी जानना चाहिए ॥५२॥ तर्जनीको आदि लेकर अंगुलियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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