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________________ कुन्दकुद श्रावकाचार . २५ कङ्कल्लवोलूक-कपोतकाक-क्रव्यादगोमायु-खरोष्ट्रसः। छेदाकृतिर्देवतभागगापि पुंसा भयं मृत्युसमं करोति' ॥३४ नागवल्ली-दलास्वादो युज्यते क्रमुकैः समम् । एलालवङ्गकङ्कोलकपूराद्यन्वितैरपि ॥३५ चूर्ण-पूगदलाधिक्ये साम्ये चात्र सितक्रमात् । दुर्गन्धागन्धसौगन्ध्य-बहुर गान् विदुर्बुधाः ॥३६ पित्तशोणितघातार्त-रूक्षक्षीणाक्षिरोगिणाम् । स चापथ्यं विषार्तस्य क्षीवशोषवतोऽपि च ॥३७ कामदं षड्-रसाधारमुष्णं श्लेष्मापहं तथा । कान्तिदं कृमिदुर्गन्धवातानां च विनाशकम् ॥३८ यःस्वादयति ताम्बूलं वक्त्रभूषाकरं नरः । तस्य दामोदरस्येव न धोस्त्यजति मन्दिरम् ॥३९ स्वापान्ते वमने स्नाने भोजनान्ते सदस्यपि । तत्पुनर्णायमल्पीयः सुखदं मुखशुद्धिकृत ॥४० सुधीराजने यत्नं कुर्यान्यायपरायणः । न्याय एवानपायो यः सूपायः सम्पदां यतः ॥४१ आकारका छिद्र यदि राक्षसवाले भागमें हो जावे तो मनुष्योंको लक्ष्मीको प्राप्ति अचिर कालसे अर्थात् शीघ्र होती है ॥३३।। कंकपक्षी, लवापक्षी, उल्लू, कबूतर, काक, मांस-भक्षी पशु, गीदड़, गर्दभ, ऊँट और सांप इनके आकारके छेद यदि देववाले भागमें हो जाये तो पुरुषोंको मृत्युके समान भयको करता है ॥३४॥ विशेष ज्ञातव्य यह है कि भद्रबाहु संहिताके परिशिष्ट अध्यायमें चौतीसवां श्लोक पहिले और तेतीसवां श्लोक पीछे दिया हुआ है । (देखो पृ. ३९५) नागवेलके पत्र अर्थात् ताम्बूलका आस्वादन सुपारीके साथ और इलायची, लोंग, कंकोल, कपूर आदि सुगन्धित वस्तुओंके साथ करना योग्य है ॥३५॥ ताम्बूल भक्षणमें चूना, सुपारी और पान इनकी अधिकतामें और समानतामें चूनाके क्रमसे दुर्गन्ध, निर्गन्ध, सौगन्ध और बहुरंगको विद्वज्जन कहते हैं। भावार्थ-पानके लगाने में यदि चूनाकी अधिकता हो तो मुखमें दुर्गन्ध उत्पन्न होगी, यदि सुपारीकी अधिकता हो तो मुख निर्गन्ध रहेगा, यदि पानका भाग अधिक होगा तो मुख सुगन्धित रहेगा। तथा तीनों समान परिमाणमें होंगे तो मुखका रंग सुन्दर होगा और अच्छा स्वाद आयगा ॥३६।। पित्त रोगी, रक्त-क्षयवाला, पीड़ित, रुक्ष शरीरी, क्षीण देही, और आँखके रोगी पुरुषोंके लिए ताम्बूल-भक्षण करना अपथ्य है। तथा विषसे पीड़ित, क्षीव (मदमत्त नशैलचो) और शोषवाले दुर्बल पुरुषको भी वह अपथ्य है ॥३७॥ ताम्बूलका भक्षण कामवर्धक, छहों रसोंका आधार, उष्ण, कफनाशक, कान्ति-दायक, और कृमि, दुर्गन्ध और वातरोग का विनाशक है ॥३८।। जो मनुष्य मुखको भूषित करनेवाले ताम्बूलका आस्वादन करता है, उसके घरको लक्ष्मी उस प्रकारसे नहीं छोड़ती है, जिस प्रकारसे कि लक्ष्मी विष्णुका साथ नहीं छोड़ती है। अर्थात् ताम्बूल खानेवाले पुरुषके घर सदा लक्ष्मीका निवास रहता है ॥३९॥ सोनेके अन्तमें, वमन होने पर, स्नान करने पर, भोजनके अन्तमें, सभामें सुखद और मुखको शुद्धि करनेवाला ताम्बूल अल्प परिमाणमें ही ग्रहण करना चाहिए ।।४०॥ बुद्धिमान् मनुष्यको न्याय-परायण होकर धनके उपार्जनमें प्रयत्न करना चाहिए। न्यायपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन ही अपाय (विनाश-) रहित होता है, क्योंकि वह नवीन अर्क १. भद्रबाह परि० संहिता, श्लोक १९३ (पृष्ठ ३९५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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