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कुन्दकुन्द थावकाचार एकाहमपि निष्पन्न ध्वनाहीनं न धारयेत् । बम प्रकाश्यः प्रासादे प्रासादकरसल्यया ॥१७२ सान्धकारे पुनः कार्यो मध्यप्रासादमानतः । समाना शुकनासस्य घटिकागूढमण्डपे ॥१७३ एतन्मानव रङ्गाल्ये मण्डपेऽथ बलानके । गृहे देवगृहे वापि जीणं चोर्तुमीप्सिते ॥१७४ प्राम्वद्वारप्रमाणंच वास्तुपायेन युज्यते। .... .... ..... .... ॥१७५ स्तम्भपट्टादिवद्वस्तु यः प्रोक्तो गृहशालके । प्रासादेष्वपि स नेयः सम्प्रदायाच्च शिल्पिनाम् ॥१७६ ___ अथ प्रतिमा-काष्ठ-पाषाण परीक्षाक्षनिर्मलेनानारलेन पिष्टया श्रीफलत्वचा । विलिमेश्मनि काष्ठे वा प्रकट मण्डलं भवेत् ॥१७७ मधु-भस्म-गुड व्योम-कपोतसदृशप्रभः। मञ्जिष्ठारुणकैः पोतेः कपिल: श्यामलेरपि॥१७८ अतः मन्दिर पर ध्वजाको फहराना चाहिए ॥१७१॥ मन्दिरको एक दिन भी ध्वजासे विहीन नहीं रखना चाहिए। मन्दिरपर ध्वजाका दण्ड मन्दिरकी ऊंचाईके हाथों की संख्यासे निश्चित करना
चाहिए ॥१७॥
मन्दिरके तलभागको अन्धकारवाले अधोभागमें प्रासाद (मन्दिर) के प्रमाणके अनुसार बनवाना चाहिए। शुकनासको रचना गूढ (मध्यवर्ती) सभामण्डपमें चारों ओर समान होना चाहिए ॥१७३।। विशेषार्थ-शिखरकी चारों दिशाओं में जिस पाषाणपर सिंहकी मूर्तियां स्थापित की जाती हैं, उसे शुकनास कहते हैं। समराङ्गण सूत्रधारमें कहा है-'शुकनासोच्छितेरूध्वं न कार्या मण्डपोच्छितिः'। तथा 'शुकनाससमा घण्टा न्यूना श्रेष्ठा न चाधिका' । अर्थात् शुकनासको ऊँचाईसे ऊपर मण्डपकी ऊंचाई न करे और घण्टा शुकनासके बराबर रखे या कम रखे, परन्तु अधिक न करे।
मन्दिरके प्रमाणसे हो रंग-मंडप और बलानक (बालकनी) निज-गृह और देव-गृहपर भी ध्वजारोहण करना चाहिए । तथा जीर्ण मन्दिरादिका उद्धार भी करना चाहिए ॥१७४॥ मन्दिर के द्वारका प्रमाण भी पूर्वके समान वास्तु-शास्त्रके उपायसे रखना योग्य है................॥१७५।। गृहशालाके निर्माणमें स्तम्भ, पट्ट आदि वस्तुओंका जो प्रमाण कहा गया है, वही प्रमाण मन्दिरोंके विषयमें ज्ञातव्य है और इसका विशेष विधान शिल्पी जनोंके सम्प्रदायसे जानना चाहिए ॥१७६॥
अब प्रतिमाके लिए काष्ठ और पाषाणको परीक्षाका वर्णन करते हैं
जिस पाषाण या काष्ठसे मूर्तिका निर्माण करना हो, उसे निर्मल कांजीके साथ पीठीसे और श्रीफल (बेलवृक्ष) की छालसे पीसकर विलेपन करनेपर मंडल (गोल आकार) प्रकट होगा ॥१७७।। वह मंडल मधु, भस्म, गुड़, व्योम और कपोतके सदृश प्रभावाला हो, अथवा मंजीठके सदश अरुण वर्णका हो, या पीत, कपिल और श्यामल वर्णका हो, अथवा चित्र-विचित्र वर्णवाला
१. इगहत्ये पासाए दंडं पउणंगुलं भवे । बद्धंगुल बुड्डिकमें जा कर पन्नास कन्नुदए ॥३४॥ (वास्तु० प्र०२)
___ अर्थात् एक हाथके विस्तार वाले प्रासादमें ध्वजादंड पौन अंगुलका मोटा होना चाहिए । पुनः प्रत्येक हाथ पर आधे-आधे अंगुलके क्रमसे ध्वजा दंडकी मोटाई बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार पचास हाथके विस्तारवाले प्रासादमें सवा पच्चीस अंगुलका मोटा ध्वजादंड करना चाहिए। तथा कानके बराबर ऊंचाईवाला (लम्बा) ध्वजादंड होना चाहिए ।
श्लोकाडू १७७ से श्लो० १८३ तक के ये सर्व श्लोक विवेक विलासमें शब्दशः समान है।-सम्पादक
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