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________________ भावकाचार-संग्रह 'उदीच्यां दिशि शः प्रश्न विप्रशल्यं कटेरषः । तच्छीघ्र निधनं स्वीयं प्रायोऽधनदमप्यवः ॥१६२ ईशान्यां विशि यः प्रश्ने गोशल्यं सार्धहस्ततः। ततो गोधननाशाय जायते गृहमेधिनः ॥१६३ मध्यकोष्ठे च यः प्रश्ने वक्षो मात्रावधस्तदा। केशा कपालं मास्थि भस्म लोहं च मृत्यवे ॥१६४ शुभ्रस्थितामृते पात्रे कृते दीपचतुष्टये। यदि दीप्ताश्चिरं दीप्राः स्यात्तद्वत्य॑स्य भूः शुभा ॥१६५ सूत्रच्छेदे च मृत्युः स्यात्कोले वाऽवाङ्मुखे रुजः । स्मृतिनश्यति कुम्भस्य पुनः पातः स्वधोगतः ॥१६६ प्रासादगतपूरोऽम्बुग्रावकर्करकान्तगः । विधिना तत्र सौवर्णवास्तुमूतिनियोजयेत् ॥१६७ उदयस्त्रिगणः प्रोक्तः प्रासावस्य स्वमानतः। प्रासादोच्छविस्तारा जगतो तस्य चोत्तम मलकोष्ठे चतुःकोणे बहिर्यः कुम्भकः स्थिरः । प्रासादहस्तसङ्ख्यान, तस्य कोणद्वयात् पुनः ॥१६९ यः कोणो मूलरेखाया विस्तरः स पृथक् पृथक् । कलशे विस्तराध्यं निगदः द्विगुणं पुनः ॥१७० प्रासावे ध्वजनिर्मुक्ते पूजाहोमजपादिकम् । सवं हि लुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यो ध्वजोच्छ्रयः ।।१७१ प्रश्नके प्रारम्भमें 'श' अक्षर हो तो कटि-प्रमाण भूमिके नोचे उत्तर दिशामें ब्राह्मणकी हड्डी होगी और वह निर्माणकर्ताके स्वयं मरणके लिए होगी और प्रायः वह निर्धनता करेगी ॥१६२॥ यदि प्रश्नके प्रारम्भमें 'प' अक्षर हो तो भूमिकी ईशान दिशामें डेढ़ हाथके नीचे गायकी हड्डी होगी और वह गृह-स्वामीके गौ और धनके नाशका कारण होगी ॥१६३॥ यदि प्रश्नके प्रारम्भमें 'य' अक्षर हो तो भूमिके मध्यमें वक्षःस्थल-प्रमाण नीचे मनुष्यकी हड्डी, केश, कपाल, भस्म और लोहा होगा और वे मृत्युके कारण होंगे ॥१६४।। भावार्थ-जिस भूमिपर मन्दिर बनाना हो वह उक्त दोषोंसे रहित होना चाहिए। मन्दिरके लिए निर्णीत भूमिपर चारों कोणोंपर कीले (खूटी) गाड़े और शुभ्र स्थिर अमृत (ताम्र) पात्रमें चारों दिशाओंमें चार दीपक जला करके रखे। यदि दीपक बहुत समय तक प्रदीप्त (प्रकाश युक्त) बने रहें तो उसके मध्यवर्ती भूमि शुभ जानना चाहिए ॥१६५।। यदि कोलोंसे बंधे हुए सूत्र (लच्छी धागे) में छेद हो जाय, अर्थात् टूट जाय तो निर्माण करानेवालेकी मृत्यु होगी। यदि कोले नीचेकी ओर झुक जावें, तो-निर्माताके रोग होगा। यदि वहाँ स्थापन किये हुए कलशका पतन हो जाय, या उल्टा मुख हो जाय तो निर्माताकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जायगी ॥१६६।। मन्दिर की नींवके लिए खोदे गये गड्ढे को पूरनेके लिए जल, पाषाण-खंड-पत्थरको गिट्टी और बालू डाले । पुनः विधि-पूर्वक सोनेके द्वारा बनायी गयी वास्तु-मूर्ति उस गड्ढे में स्थापित करे ॥१६७॥ मन्दिरके विस्तारके प्रमाणसे उसकी ऊँचाई तिगुणी कही गई है। उस मन्दिर की ऊँचाई, विस्तार और जगती (कुर्सी) उत्तम होना चाहिए ॥१६७॥ मन्दिरका जो मूल कोष्ठ चतुष्कोण हो. उसके बाहिर स्थिर कलश स्थापन करे। पुनः उस कोष्ठके दोनों कोणोंसे मन्दिरके विस्तार आदिके हाथों की गणना करनी चाहिए ॥१६९।। कोष्ठका जो कोण है और मूल रेखाका जो विस्तार है, वह पृथक्-पृथक् लेना चाहिए। पुनः विस्तारसे कलंशमें ऊँचाई दुगुणी कही गई है ॥१७०॥ यतः ध्वजासे रहित मन्दिरमें पूजन, होम, जप आदिका करना सर्वथा व्यर्थ होता है, १. उत्तरदिसि सप्पण्हे दियवरसल्लं कडिम्मि रोरकरं । पप्पण्हे गोसल्लं सड्ढकरे धणविणा समीसाणे ॥१६॥ २. जप्पण्हे मज्झगिहे अइच्छार-कवाल-केस बहुसल्ला । वच्छच्छलपामाणा पाएण य हुँति मिच्चुकरा ॥१७॥ ( वास्तुसार, गृहप्रकरण पृ० ५-७) - Jain Education International For private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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