SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ """ rrrrror ( १७७ ) कुलीन स्त्रियोंके नहीं करने योग्य कार्योका वर्णन पतिके प्रवासमें रहने पर स्त्रियोंके नहीं करने योग्य कार्योंका निरूपण रजस्वला स्त्रीके नहीं करने योग्य कार्योंका निरूपण ऋतु-स्नात स्त्रीके कायोका निरूपण । गर्भाधानमें त्यागने योग्य नक्षत्र आदिका वर्णन बलवर्धक खान-पानका वर्णन स्त्रियोंके दोहलोंसे गर्भस्थ जीवके पुत्र-पुत्री आदि होनेकी पहिचान गर्भस्थ जीवके शारीरिक वृद्धिके क्रमका वर्णन । मनुष्यके शरोरगत नाड़ियोंकी संख्या आदिका निरूपण गर्भस्थ जीवके मां के सोने पर सोने और जगनेपर जागने आदिका वर्णन जन्म-कालमें होने वाले विभिन्न योग व लग्नोंके शुभाशुभ फलका वर्णन दांत-युक्त शिशुका जन्म कुलका क्षयकारक होता है मनुष्योंकी दन्त-संख्यापर और उनके विभिन्न वर्णोपर शुभाशुभ फलोंका वर्णन इष्टदेवको नमस्कार कर और चित्तको स्वच्छ कर खान-पानसे रहित होकर वाम पार्श्वसे मनुष्यके निद्रा लेनेका विधान रात्रि-जागरण करनेसे और दिनमें सोनेसे शरीरमें रुक्षता उत्पन्न होती है बाल वृद्ध और दुर्बल पुरुष आदिका दिनमें सोना लाभकारक है ग्रीष्म ऋतुमें दिनका सोना सुखकारक है किन्तु अन्य ऋतुओंमें दिवा-स्वाप, कफ और पित्त वर्धक होता है पष्ट उल्लास ६६-६८ वसन्त ऋतुमें ग्रहण करने योग्य आहार विहार आदिका वर्णन ग्रीष्म ऋतुमें ग्रहण करने योग्य, आहार विहार आदिका वर्णन वर्षा ऋतुमें ग्रहण करने योग्य आहार-विहार आदि का वर्णन शरद ऋतुमें ग्रहण करने योग्य आहार, विहार आदि का वर्णन हेमन्त और शिशिर ऋतुमें ग्रहण करने योग्य आहार-विहार आदिका वर्णन सप्तम उल्लास दुर्लभ मनुष्य-भव पाकर मनुष्यको दिनका एक भी मुहूर्त व्यर्थ नहीं खोना चाहिए मनुष्यको आठ मास धनोपार्जन करके वर्षाकालमें एक स्थानमें सुखसे रहना चाहिए. मनुष्यको ऐसा कोई उत्तम कार्य करना चाहिए जिससे दूसरा जन्म भी उत्तम प्राप्त हो प्रतिवर्ष साधर्मी-वात्सल्य कुटुम्बीजनोंका सन्मान और तीर्थ यात्रा करनी चाहिए अपने व्रतोंकी शुद्धिके लिए प्रतिवर्ष गुरुसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए जो व्यक्ति अपने मृत्यु कालको जानता है वह महापुरुष है अष्टम उल्लास ७०-११५ मनुष्यके निवास करने योग्य देशका वर्णन मनुष्य के निवास नहीं करने योग्य स्थानका विस्तृत वर्णन २३ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy