SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४ ) उज्जैनका सहयोग मिला है । हस्त रेखा प्रकरण में विमल जैन, दुर्गाकुण्ड, वाराणसीका सहयोग मिला है। इन सबका मैं बहुत आभारी हूँ । परमपूज्य श्रद्धेय वयोवृद्ध श्री १०८ मुनि श्री समन्तभद्रजी महाराज द्वारा विगत दो वर्षों में पत्रोंके माध्यम से एवं दो बार बाहुबलीमें प्रत्यक्ष चरण- सान्निध्य में बैठकर प्रस्तावना के मुख्य-मुख्य स्थलोंको सुनानेके अवसरपर सत्परामर्श और शुभाशीर्वादके साथ जो प्रेरणाएँ प्राप्त हुई हैं, उनके लिए मैं उनका जन्म-जन्मान्तरों तक ऋणी रहूँगा । उनके ही प्रोत्साहन और शुभाशीर्वादका यह सुफल है कि इस वर्ष अनेक बार मृत्युके मुखमें पहुँचनेपर भी मैं जीवित बच सका और प्रस्तुत प्रस्तावनाको लिखकर पूर्ण कर सका हूँ । उनके ही सुयोग्य शिष्य श्री० ० पं० माणिकचन्द्रजी चबरे कारंजा और श्री० ब्र० पं० माणिकचन्द्रजी भिसीकर बाहुबलीका आभार किन शब्दोंमें व्यक्त करू ँ, जिन्होंने प्रस्तावनाके प्राग्-रूपको आद्योपान्त सुनकर और आवश्यक संशोधन-सुझाव देकर अनुगृहीत किया है । कुन्दकुन्द श्रावकाचारके सम्पादनमें उपयुक्त ग्रन्थ हमें भारतीय ज्ञानपीठ काशीके ग्रन्थागार से प्राप्त हुए हैं, इसलिए मैं उसका और पं० महादेवजी चतुर्वेदी, व्याकरणाचार्यका आभारी हूँ । पाठोंके संशोधन एवं अर्थ - भावार्थक स्पष्टीकरणमें विलम्ब होनेसे अनेक बार मेकप फर्मोको तुड़ाकर नवीन मैटर जुड़वानेके कारण प्रेस मालिक और उनके कम्पोजीटरों को बहुत अधिक मुसीबतों का सामना करना पड़ा है, फिर भी उन्होंने कभी किसी प्रकारका असन्तोष व्यक्त न करके सहर्ष मुद्रण कार्यको किया है। इसके लिए मैं उन सबका बहुत आभारी हूँ । गत वर्ष बनारस-प्रवासमें चार मासतक श्री पार्श्वनाथ जैन मन्दिर भेलूपुरकी धर्मशाला में ठहरनेकी सुविधा प्रदान करनेके लिए मैं उसके व्यवस्थापकोंका भी आभारी हूँ । अन्तमें श्री जीवराज ग्रन्थमालाके मानद मंत्री वयोवृद्ध सेठ श्री बालचंद देवचंद शहा बम्बई और ग्रंथमालाके प्रधान सम्पादक श्रीमान् पं० कैलाशचंद्रजी सिद्धान्ताचार्य बनारसका बहुत आभारी हूँ जिन्होंने कि प्रस्तुत श्रावकाचार संग्रहके सम्पादन - प्रकाशन की स्वीकृति और समयसमयपर सत्परामर्श देकर मुझे अनुगृहीत किया है । प्रस्तावनाके लिखने में अत्यधिक विलम्ब होनेके कारण चिरकालतक प्रतीक्षा करनवाले पाठकोंके समुख मैं क्षमा प्रार्थी हूँ | तथा उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि जहाँपर भी जिस किसी श्लोक के अर्थ विपर्यास देखें उसको सुधारने और मुझे लिखने की कृपा करें। तथा प्रस्तावनामें जहाँ उन्हें असंगति प्रतीत हो उससे मुझे अवगत करावें । रक्षावन्धन, श्रावणी पूर्णिमा वीर नि० सं० २५०६ वि० सं० २०३६/७७८ ७९ Jain Education International जिनवाणी - चरण - सरोरुह चञ्चरीक हीरालाल शास्त्री हीराश्रम साढूमल जिला - ललितपुर ( उ० प्र०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy