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________________ ( १६९ ) केले आदिके पत्ते पर रखकर भोजन करे, उसके द्वारा स्पर्श की हुई वस्तु गृहस्थको अपने काममें नहीं लेना चाहिए । रजस्वला स्त्रीके स्पर्शसे नेत्र रोगी अन्धा हो जाता है, पकवान आदि भोज्य वस्तुओंका स्वाद बिगड़ जाता है इत्यादि (भाग २ पृष्ठ १७५ श्लोक २६२-२७२) । • उसके शब्द सुननेसे पापड़ों तकका स्वाद बिगड़ जाता है, ऐसा प्रायः सभीका अनुभव है । श्री अभ्रदेवने अपने व्रतोद्योतन श्रावकाचारके प्रारम्भमें ही रजस्वला स्त्रीके घरकी वस्तुओंके स्पर्श करनेका निषेध किया है और उसके देव पूजनादि करनेपर उसके बन्ध्या होने, आगामी भवमें नपुंसक और दुर्भागी होने आदिका वर्णन किया है । (भाग ३ पृष्ठ २०७ श्लोक १२ आदि) दक्षिण भारतमें आज भी उच्च वर्णवाले लोगोंमें रजस्वला स्त्री घरका कोई काम-काज नहीं करती है और एकान्त में रहकर नीरस भोजन केले या ढाकके पत्तोंपर रखकर खाती है । परन्तु उत्तर भारतमें इसका कोई विचार नहीं रहा है, भोजन बनानेके सिवाय वह प्रायः घरके सब काम करती है और सारे घरमें आती-जाती है । विवेकी स्त्री-पुरुषोंको इसका अवश्य विचार करना चाहिए । ४३. उपसंहार स्वामी समन्तभद्रने अपने रत्नकरण्डकमें श्रावक धर्मका जो सूत्र - रूपसे सयुक्तिक वर्णन किया है, वह परवर्ती श्रावकाचारोंके लिए आधारभूत और आदर्श रहा है । उत्तरकालवर्ती श्रावकाचार-कर्ताओंने अपने-अपने समयमें होनेवाले दुष्कृत्योंका निषेध और आवश्यक कर्त्तव्योंका विधान करके उसे इतना अधिक पल्लवित, विकसित और विस्तृत कर दिया है कि तदनुसार आचरण आजके सामान्य गृहस्थ के लिए दूभर या दुर्बल हो गया है । स्वामी समन्तभद्रने प्रारम्भमें ही सम्यग्दर्शनका सांगोपांग वर्णन कर जो उसकी महिमा बतायी है, और उसे मोक्षमार्गका कर्णधार कहा है, उस पर आज विचार-शील मनुष्योंका ध्यान जाना चाहिए और उसे मूढ़ताओं और मदादि दोषोंसे रहित पालन करनेका प्रयत्न करना चाहिए । सम्यक्त्वको धारण करनेके पश्चात् पाँच अणुत्रतोंको धारण करनेमें भी आज किसीको कोई कठिनाई नहीं है । हाँ, कालाबाजारी करने और जिस किसी भी अवैध मार्गसे धन-संग्रह करनेवालों को अवश्य ही कठिनाई हो सकती है । मद्य, मांस और मधुका सेवन जैन घरोंमें कुल परम्परासे नहीं होता रहा है, परन्तु आज उन्हींके घरोंमें उन्हींकी सन्तान मदिरापान करने और होटलोंमें जाकर नाना प्रकारके व्यंजनोंमें बने मांसका भक्षण करने लगी है । फिर मधु सेवनकी तो बात ही क्या है । यदि आजके जैन मांस भक्षण और मदिरा-पानका ही त्याग करें तो वही जैनत्वकी प्राप्तिका प्रथम श्रेयस्कर कदम होगा । आचार्योंने धर्माचरण करने के लिए सर्व प्रथम अशुभ कार्योंके त्यागका उपदेश दिया है । तत्पश्चात् शुभ कार्योंके करनेका विधान किया है । आजका मनुष्य अशुभ कार्योंका त्याग न करके जैनी या श्रावक कहलानेका हास्यास्पद उपक्रम करता है । २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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