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________________ जो महानुभाव श्रावकके सर्वव्रतों एवं कर्तव्योंका भले प्रकारसे निर्वाह कर सकते हैं उनको पालन करनेके लिए हमारा निषेध नहीं है, प्रत्युत हम उनका अभिनन्दन करते हैं। तथा जो व्यक्ति जितना भी शावक-धर्मका पालन करें, हम उसका भी स्वागत करते हैं। आज नयी पीढ़ीमें आचार-विचारका उत्तरोत्तर ह्रास होता जा रहा है, उसकी रोक-थामके लिए यह आवश्यक है कि हम प्रौढ़ जन स्वयं आवश्यक जैनत्वका पालन करते हुए भावी पीढ़ीके लिए आदर्श उपस्थित करके उन्हें सन्मार्गपर चलानेका सत्-प्रयास करें। यह हमारा नम्र निवेदन है। प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहमें पूर्व-प्रकाशित जिन-जिन श्रावकाचारोंका संकलन किया गया है, उनके सम्पादकों एवं अनुवादकोंका मैं बहुत आभारी हूँ, उन सबका उल्लेख 'प्रति-परिचय में किया गया है। आजसे पूरे १३ वर्ष पूर्व जीवराज ग्रन्थमालाके मानद मंत्री श्रीमान् सेठ बालचन्द देवचन्द शहा और स्व० डॉ० ए० एन० उपाध्येने सभी श्रावकाचारोंके एकत्र संग्रहकी जो भावना व्यक्त की थी और जिसे मैंने यह विचार करके स्वीकार किया था कि 'ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन'का विशाल ग्रंथ-संग्रह इसके सम्पादनमें मेरा सहायक होगा। आज उसे कार्यरूपमें परिणत देखकर मुझे अपार हर्षका अनुभव हो रहा है और साथ ही महान् दुःखका भी संवेदन हो रहा है कि इस संग्रहका सुझाव देनेवाले और जीवराज ग्रंथमालाके प्रधान सम्पादक डॉ० उपाध्ये साहब आज हमारे बीच नहीं हैं। यदि वे आज होते तो अवश्य ही परम सन्तोष व्यक्त करते। इस संग्रहके सम्पादनमें उक्त सरस्वती भवनका मैंने भरपूर उपयोग किया है, इसके लिए मैं उसके संस्थापक ऐलक पन्नालालजी महाराजका जन्म-जन्मान्तरों तक ऋणी रहूँगा। मुझे सन् १९३१ में उनके चरण-सान्निध्यमें पूरे एक चतुर्मास तक रहनेका सौभाग्य तब प्राप्त हुआ था, जब कि मैं भा०व० दि० जैन महाविद्यालय ब्यावरमें धर्माध्यापक था और उनके लिए २-३ संस्कृत ग्रंथोंके अनुवाद करनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था। यद्यपि उस समय तक ब्यावरमें उनके सरस्वती भवनकी शाखा स्थापित नहीं हई थी, पर उन्होंने अपना भाव प्रकट करते हुए यह अवश्य कहा था कि जब भी यहाँ सरस्वती भवनकी शाखा स्थापित करूँगा, तब तुम्हें यहाँ नियुक्त करूँगा। दुःख है कि मैं उनके जीवन-कालमें ब्यावर नहीं पहुँच सका । फिर भी लगभग १४ वर्ष तक उक्त सरस्वती भवनके कार्य-भारको सँभालते हुए उनका सदा स्मरण बना रहा और इस संग्रहके सम्पन्न होनेके सुअवसरपर उनके चरणोंमें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ । जैन समाजके धार्मिक धनिक वर्गमें सेठ चम्पालालजी रामस्वरूपजी रानी वालोंका घराना अग्रणी रहा है। मेरे ब्यावर रहनेके समय उनके परिवारवालों द्वारा उनको नशियाँमें रहनेकी भरपूर सुविधा प्राप्तकर में इस श्रावकाचारका सम्पादन सम्पन्न कर सका, उसके लिए मैं उनका और सरस्वती भवनके संचालकोंका कृतज्ञ हूँ। ब्यावर सरस्वती भवनमें ताड़पत्रपर लिखित माघनन्दि श्रावकाचारकी एक प्राचीन प्रति है। मैंने बहुत प्रयत्न किया कि यदि किसी प्रकार उसकी कनड़ी लिपिसे हिन्दी लिपि हो जाय तो उसे भी प्रस्तुत संग्रहमें संकलित कर लिया जाये। इसके लिए मूडबिद्रीके भट्टारकजीके साथ संस्थाके मंत्रीजीने लिखा-पढ़ी भी की और उनकी ओरसे आश्वासन भी मिला। परंतु नागरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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