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सम्पादकीय-वक्तव्य भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे सन् १९५२ में प्रकाशित वसुनन्दि श्रावकाचारको प्रस्तावना मैंने श्रावकधर्मके प्रतिपादन-प्रकार, क्रमिक विकास और प्रतिमाओंका आधार आदि विषयोपुर पर्याप्त प्रकाश डाला था। उसके पश्चात् सन् १९६४ में भारतीय ज्ञानपीठसे ही प्रकाशित उपासकध्ययनको प्रस्तावनामें उसके सम्पादक श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने श्रावकधर्मपर और भी अधिक विशद प्रकाश डाला है। अब इस प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहके चार भागोंमें संस्कृतप्राकृतके ३३ श्रावकाचार और पाँचवें भागमें हिन्दी-छन्दोबद्ध तीन श्रावकाचार एवं क्रियाकोष संकलित किये गये हैं। उन सबके आधारपर प्रस्तावनामें किन-किन विषयोंको रखा जायगा, इसकी एक रूप-रेखा इस संग्रहके तीसरे भागके सम्पादकीय वक्तव्यमें दी गई थी। उसके साथ श्रावकआचार एवं उसके अन्य कर्तव्योंपर भी प्रकाश डालनेकी आवश्यकता अनुभव की गई। अतः इस भागके साथ दी गई प्रस्तावनामें मूलगुणोंकी विविधता, 'अतीचार-रहस्य, पञ्चामृताभिषेक, यज्ञोपवीत, आचमन, सकलीकरण, हवन, आह्वानन, स्थापन, विसर्जन आदि अन्य अनेक विषयोंकी चर्चा की गई है, जिसके स्वाध्यायशील पाठक जान सकेंगे कि इन सब विधि-विधानोंका समावेश श्रावकाचारोंमें कबसे हुआ है।
देव-दर्शनार्थ जिन-मन्दिर किस प्रकार जाना चाहिए, उसका क्या फल है ? मन्दिर में प्रवेश करते समय 'निःसही' बोलनेका क्या रहस्य है, इसपर भी विशद प्रकाश प्रस्तावनामें डाला गया है, क्योंकि 'निःसही' बोलनेकी परिपाटी प्राचीन है, हालांकि श्रावकाचारोंमें सर्वप्रथम पं० आशाधरने ही इसका उल्लेख किया है। पर इस 'निःसही' का क्या अर्थ या प्रयोजन है, यह बात बोलने वालोंके लिए आज तक अज्ञात हो रही है। आशा है कि इसके रहस्योद्धाटनार्थ लिखे गये विस्तृत विवेचनको भी प्रबुद्ध पाठक एवं स्वाध्याय करनेवाले उसे पढ़कर वास्तविक अर्थको हृदयङ्गम करेंगे।
श्रावकके आचारमें उत्तरोत्तर नवीन कर्तव्योंको समावेश करके श्रावकाचार-निर्माताओंने यह ध्यान ही नहीं रखा कि दिन-प्रतिदिन हीनताको प्राप्त हो रहे इस युगमें मन्द बुद्धि और हीन शक्तिके धारक गृहस्थ इस दुर्वह श्रावकाचारके भारको वहन भी कर सकेंगे, या नहीं?
परवर्ती अनेक श्रावकाचार-रचयिताओंने मुनियोंके लिए आवश्यक माने जानेवाले कर्तव्योंका भी श्रावकोंके लिए विधान किया। इसी प्रकार मुनियोंके लिए मूलाचारमें प्रतिपादित सामायिकवन्दनादिके ३२-३२ दोषोंके निवारणका भी श्रावकों के लिए विधान कर दिया। कुछने तो प्राथमिक श्रावकके लिए इतनी पाबन्दियां लगा दी हैं कि साधारण गृहस्थको उनका पालन करना ही असंभव-सा हो गया है। इन सब बातोंपर विचार करनेके बाद प्रस्तावनाके अन्तमें आजके युगानुरूप एक रूप-रेखा प्रस्तुत की गई है, जिसे पालन करते हुए कोई भी व्यक्ति अपनेको जेन या श्रावक मानकर उसका भलीभाँतिसे निर्वाह कर सकता है।
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