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( १५० )
णमो जिणाणं ३, णमो णिसीहीए ३ ।
इसका अर्थ यह है कि जिनेन्द्रोंको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो, निषीधिकाको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो ।
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यह निसीही या निषीधिका क्या है और इसका क्या अर्थ है । यह विचारणीय है । १. जैन शास्त्रों और शिलालेखोंकी छान-बीन करनेपर हमें इसका सबसे खारवेलके शिलालेखमें मिलता है, जो कि उदयगिरि पर अवस्थित है और जिसे महाराज खारवेलने आजसे लगभग २२०० वर्ष पहले उत्कीर्ण कराया था १४ वीं पंक्ति में 'कुमारीपवते अरहते पखीणसंसतेहि काय निसीदियाय " "अरहतनिसीदियासमीपे पाभारे 'पाठ आया है। यद्यपि खारवेल के शिलालेखका यह अंश अभी तक पूरी तौरसे पढ़ा नहीं जा सका है और अनेक स्थल अभी भी सन्दिग्ध हैं, तथापि उक्त दोनों पंक्तियोंमें 'निसीदिया' पाठ स्पष्ट रूपसे पढ़ा जाता है जो कि निसीहियाका ही रूपान्तर है ।
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पंक्ति में
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पुराना उल्लेख कलिंग - देशाधिपति
इस शिलालेखकी और १५ वीं
२. 'निसीहिया' शब्दके अनेक उल्लेख विभिन्न अर्थोंमें दि० श्वे० आगमोंमें पाये जाते हैं । श्वे० आचारांग सूत्र (२, २, २) में निसीहिया' की संस्कृत छाया 'निशीथिका' कर उसका अर्थ स्वाध्यायभूमि और भगवतीसूत्र ( १४- १० ) में अल्प कालके लिए गृहीत स्थान किया गया है । समवायांगसूत्रमें 'निसीहिया' की संस्कृत छाया 'नैधिकी' कर उसका अर्थ स्वाध्यायभूमि, प्रतिक्रमणसूत्रमें पाप क्रियाका त्याग, स्थानांगसूत्रमें व्यापारान्तरके निषेधरूप समाचारी आचार, वसुदेवहिण्डिमें मुक्ति, मोक्ष, स्मशानभूमि, तीर्थंकर या सामान्य केवलीका निर्वाण- स्थान, स्तूप और समाधि अर्थ किया गया है । आवश्यकचूर्णि में शरीर, वसतिका – साधुओंके रहनेका स्थान और स्थण्डिल अर्थात् निर्जीव भूमि अर्थ किया गया है ।
गौतम गणधर-प्रथित माने जाने वाले दिगम्बर प्रतिक्रमणसूत्रमें निसीहियाओंकी वन्दनाकरते हुए
'जाओ अण्णाओ काओवि णिसोहियाओ जीवलोयस्मि' यह पाठ आया है—अर्थात् इस जीव-लोक में जितनी भी निषीधिकाएँ हैं, उन्हें नमस्कार हो ।
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उक्त प्रतिक्रमण सूत्रके संस्कृत टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रने जो कि संभवतः प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि अनेक दार्शनिक ग्रन्थोंके रचयिता और समाधिशतक, रत्नकरण्डक आदि अनेक ग्रन्थोंके टीकाकार हैं-निषीधिकाके अनेक अर्थोका उल्लेख करते हुए अपने कथनकी पुष्टिमें कुछ प्राचीन गाथाएँ उद्धृत की हैं, जो इस प्रकार हैं
जिण- सिद्धबिब- णिलया किदगादिगा य रिद्धिजुदसाहू | णाणजुदा मुणिपवरा णाणुप्पत्तीय णाणिजुदखेत्तं ॥ १ ॥ सिद्धाय सिद्धभूमी सिद्धाण समासिओ हो देसो । सम्मत्तादिचउक्कं उप्पण्णं जेसु तेहि सिदखेत्तं ॥ २ ॥ चत्तं तेहि य देहं तट्ठविदं जेसु ता णिसोहीओ । जेसु विसुद्धा जोगा जोगधरा जेसु संठिया सम्मं ॥ ३ ॥
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