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। ११८ ) ८. वसुनन्दीने अपने श्रावकाचारमें प्रोषध प्रतिमाका वर्णन करते हुए द्रव्य और भाव-पूजन करनेका विधान किया है । ( भा० १ पृ० ४५२ गा० २८७ ) । पुनः श्रावकके अन्य कर्तव्योंका वर्णन करते हुए पूजनका विस्तृत वर्णन किया है; वहाँपर नाम, स्थापनादि पूजनके ६ भेद बताकर स्थापना पूजनमें नवीन प्रतिमाका निर्माण कराके उनकी प्रतिष्ठा विधिका वर्णन कर अन्तमें शास्त्रमार्गसे स्नपन करनेका विधान किया है। (पृ. ४६८ गा० ४२४ ) तदनन्तर कालपूजाका वर्णन करते हुए तीर्थंकरोंके गर्भ-जन्मादि कल्याणकोंके दिन इक्षुरस, घी, दही, दूध, गन्ध और जलसे. भरे कलशोंसे जिनाभिषेकका वर्णन किया है । ( भा० १ पृ० ४७१ गा० ४५३-४५४ )
९. सावयधम्मदोहामें जिन-पूजनका वर्णन करते हुए लिखा है कि जो जिनदेवको घी और दूधसे नहलाता है वह देवोंके द्वारा नहलाता जाता है । ( भा० १ पृ. ४९९ दोहा १८९ ) ।
१०. सागारधर्मामृतके दूसरे अध्यायमें महापुराणका अनुसरण कर पूजाके नित्यमह आदि भेदोंका वर्णन कर और तदनुसार ही 'बलि-स्तवन' आदिका भी निर्देश कर इस स्थलपर पञ्चामृताभिषेकका कोई वर्णन नहीं किया है । ( देखो-भाग २ पृ० ९-१० श्लोक २४-३० )
इससे आगे श्रावकके १२ व्रतोंका विस्तारसे तीन अध्यायोंमें वर्णन करके छठे अध्यायमें श्रावककी प्रातःकाल जागनेसे लेकर रात्रिमें सोने तककी दिनचर्याका वर्णन किया गया है। वहाँपर प्रातःकाल जिनालयमें जाकर पौर्वाहिक पूजनका विधान किया है । तत्पश्चात् अपने व्यापारादिके उचित स्थान दुकान आदिपर जाकर न्यायपूर्वक जीविकोपार्जनका निर्देश किया है ( भा० २ पृ० ६४ श्लोक १५ ।) पुनः भोजनका समय होनेपर घर आकर यथादोष स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहिनके माध्याह्निक करनेका विधान किया है। उसकी विधिमें आशाधरजीने वही श्लोक दिया है जिसे कि उन्होंने 'प्रतिष्ठासारोद्धार' नामक अपने प्रतिष्ठा पाठके शास्त्रमें दिया है। उसका भाव यह है
अभिषेककी प्रतिज्ञा करके भूमिका शोधन करे, उसपर सिंहासन रखे, उसके चारों कोनोंपर जलसे भरे चार कलश स्थापित करे, सिंहासन पर चन्दनसे श्री और ह्री लिखकर कुशा क्षेपण करे। पुनः उसपर जिन-बिम्ब-स्थापन करे, और इष्ट दिशामें खड़े होकर आरती करे। तदनन्तर जल, रस, घी, दूध और दहीसे अभिषेक करे। पुनः लवंगादिके चूर्णसे उद्वर्तन कर चारों कोनोंपर रखे कलशोंके जलसे अभिषेक कर जल-गन्धादि द्रव्योंसे पूजन करे और अन्तमें जिनदेवको नमस्कार कर उनके नामका स्मरण करे । (भा० २ पृ० ६५ श्लोक २२)
इस स्थलपर सबसे अधिक विचारणीय बात यह है कि आशाधरने प्रातःकालीन पूजनके समय जिनालयमें जाकर पूजनके समय उक्त अभिषेकका विधान क्यों नहीं किया और मध्याह्न-पूजनके समय अपने घर पर ही भूमि-शोधनकर उपर्युक्त प्रकारसे जिनबिम्बके अभिषेकको दूध-दही आदिसे करनेका वर्णन क्यों किया? इस प्रश्नके अन्तस्तलमें जानेपर सहजमें ही यह ज्ञात हो जाता है कि आशाधरके समय तक सार्वजनिक जिन-मन्दिरमें पञ्चामृताभिषेकका प्रचलन नहीं था । किन्तु यतः आशाधर मूत्ति-प्रतिष्ठा शास्त्रके ज्ञाता और निर्माता थे, तथा प्रतिष्ठाके समय नवीन मूत्तिका पञ्चामृताभिषेक किया जाता था, अतः उन्होंने उसी पद्धतिके प्रचारार्थ मध्याह्न-पूजाके समय घर पर सहज-सुलभ दूध-दही आदिसे भी अभिषेक करनेका विधान कर दिया। यदि ऐसा न होता, तो वे दूसरे अध्यायमें नित्यमह आदि चारों भेदोंका वर्णन करते हुए पञ्चामृताभिषेक
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