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________________ ( ९४) समयके परिवर्तनके साथ शूद्रोंको दीक्षा देना बन्द हुआ. या शूद्रोंने जैनधर्म धारण करना बन्दकर दिया और तेरहवीं शताब्दीसे लेकर इधर मुनिमार्ग प्रायः बन्द-सा हो गया तथा धर्मशास्त्रके पठन-पाठनकी गुरु-परम्पराका विच्छेद हो गया, तब लोगोंने ग्यारहवीं प्रतिमाके ही दो भेद मान लिये और उनमेंसे एकको क्षुल्लक और दूसरेको ऐलक कहा जाने लगा । क्या आज उच्चकुलीन, ग्यारहवीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावकोंको 'क्षुल्लक' कहा जाना योग्य है ? यह अद्यापि विचारणीय है । १२. श्रावक प्रतिमाओंके विषय में कुछ विशेष ज्ञातव्य (१) आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी समन्तभद्र, स्वामी कार्त्तिकेय, सोमदेव, चामुण्डराय, अमितगति आदि अनेक आचार्योंने ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेद नहीं कहे हैं, जबकि वसुनन्दी, आशाधर, मेधावी, गुणभूषण आदि अनेक श्रावकाचारकारोंने दो भेद किये हैं । (२) सोमदेवने सचित्तत्यागको आठवीं प्रतिमा कहा है और कृषि आदि आरम्भके त्यागको पाँचवीं प्रतिमा कहा है, जो अधिक उपयुक्त एवं क्रम संगत प्रतीत होता है ( देखो - भाग १, पृ० २३३, श्लोक ८२१ ) (३) सकलकीर्तिने ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके लिए मुहूर्त्त प्रमाण निद्रा लेना कहा है ( देखो - भाग २, पृ० ४३४, श्लोक ११० ) (४) सकलकीत्तिनं ग्यारहवी प्रतिमावालेको क्षुल्लक कहा है। उसे सद्-धातुका कमण्डलु, और छोटा पात्र — थाली रखनेका विधान किया है । ( देखो - भाग २, पृ० ४२५-४२६, श्लोक ३४, ४१-४२ ) (५) क्षुल्लक के लिए अनेक श्रावकाचारकारोंने सहज प्राप्त प्रासुक द्रव्यसे जिन-पूजन करने - का भी विधान किया है । ( देखो - लाटीसंहिता भाग ३, पृ० १४८, श्लोक ६९ । पुरुषार्थानुशासन भाग ३, पृ० ४ २९ श्लोक ८० ) (६) पुरुषार्थानुशासनमें ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेद नहीं किये गये हैं और उसे 'कौपीन' के सिवाय स्पष्ट शब्दोंमें सभी वस्त्रके त्यागका विधान किया है । ( देखो - भाग ३, पृ० ५२९, श्लोक ७४ ) (७) लाटी संहिता में क्षुल्लक के लिए कांस्य या लोहपात्र भिक्षाके लिए रखनेका विधान है । ( देखो - भाग ३, पृ० ५२८, श्लोक ६४ ) (८) पुरुषार्थानुशासन में दशवीं प्रतिमाधारीके पाप कार्यों या गृहारम्भों में अनुमति देनेका विस्तृत निषेध और पुण्य कार्योंमें अनुमति देनेका विस्तृत विधान किया है । ( देखो -भाग ३, पृ० ५२८, श्लाक ६०-७० ) (९) पं॰ दौलतरामजीने अपने क्रियाकोषमें नवमी प्रतिमाधारीके लिए काठ और मिट्टीका पात्र रखने और धातुपात्रके त्यागका स्पष्ट कथन किया है । ( देखो - भाग ५, पृ० ३७५ ) (१०) गुणभूषणने नवमी प्रतिमाधारीके लिए वस्त्रके सिवाय सभी परिग्रहके त्यागका विधान किया है | ( देखो - भाग २, पृ० ४५४, श्लोक ७३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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