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________________ वस्त्रधारी था, अतः तात्कालिक लोगोंने उनके व्यवच्छेद करनेके लिए जैन साधुओंको नग्न, निर्ग्रन्थ आदि नामोंसे पुकारना प्रारम्भ किया। यही कारण है कि स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंमें जैन साधुओंके लिए 'निग्गंठ' या "णिगंठ' नामका प्रयोग किया गया है, जिसका कि अर्थ निर्ग्रन्थ है। अभी तक नञ् समासका सर्वथा प्रतिषेध-परक 'न + चेलकः = अचेलकः' अर्थ लिया जाता रहा है। पर जब नग्न साधुओंको स्पष्ट रूपसे दिगम्बर, निर्ग्रन्थ आदि रूपसे व्यवहार किया जाने लगा, तब तो जो अन्य समस्त बातोंमें तो पूर्ण साधुव्रतोंका पालन करते थे, परन्तु लज्जा, गौरव या शारीरिक लिंग-दोष आदिके कारण लंगोटी मात्र धारण करते थे, ऐसे ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकोंके लिए नञ् समासके ईषदर्थका आश्रय लेकर 'ईषत् + चेलकः अचेलकः' का व्यवहार प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है जिसका कि अर्थ नाममात्रका वस्त्र धारण करनेवाला होता है। ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दीसे प्राकृतके स्थानपर अपभ्रंश भाषाका प्रचार प्रारम्भ हुआ और अनेक शब्द सर्वसाधारणके व्यवहारमें कुछ भ्रष्ट रूपसे प्रचलित हुए। इसी समयके मध्य 'अचेलक' का स्थान 'ऐलक' पदने ले लिया, जो कि प्राकृत-व्याकरणके नियमसे भी सुसंगत बैठ जाता है। क्योंकि प्राकृतमें 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' (हैम० प्रा० १,१७७) इस नियमके अनुसार 'अचेलक' के चकारका लोप हो जानेसे 'अ ए ल क' पद अवशिष्ट रहता है । यही (अ + ए-ऐ) सन्धिके योगसे 'ऐलक' बन गया। ___ उक्त विवेचनसे यह बात भली भाँति सिद्ध हो जाती है कि 'ऐलक' पद भले ही अर्वाचीन हो पर उसका मूल रूप 'अचेलक' शब्द बहुत प्राचीन है। लाटीसंहिताकारको या तो 'ऐलक' का मूलरूप समझमें नहीं आया, या उन्होंने सर्वसाधारणमें प्रचलित 'ऐलक' शब्दको ज्योंका त्यों देना ही उचित समझा । इस प्रकार ऐलक शब्दका अर्थ नाममात्रका वस्त्रधारक अचेलक होता है और इसकी पुष्टि आचार्य समन्तभद्रके द्वारा ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके लिए दिये गये 'चेलखण्डधरः' पदसे भी होती है। निष्कर्ष उपर्युक्त सर्व विवेचनका निष्कर्ष यह है क्षुल्लक-उस व्यक्तिको कहा जाता था, जो कि मुनिदीक्षाके अयोग्य कुलमें या शूद्र वर्णमें उत्पन्न होकर स्व-योग्य, शास्त्रोक्त, सर्वोच्च व्रतोंका पालन करता था, एक वस्त्रको धारण करता था, पात्र रखता था, अनेक घरोंसे भिक्षा लाकर और एक जगह बैठकर खाता था, वस्त्रादिका प्रतिलेखन रखता था, कैंची या उस्तरेसे शिरोमुंडन कराता था। इसके लिए वीरचर्या, आतापनादि योग करने और सिद्धान्त ग्रन्थ तथा प्रायश्चित्तशास्त्रके पढ़नेका निषेध था । ऐलक-मूल में 'अचेलक' पद नग्न मुनिये के लिए प्रयुक्त होता था। पीछे जब नग्न मुनियोंके लिए निर्ग्रन्थ, दिगम्बर आदि शब्दोंका प्रयोग होने लगा, तब यह शब्द ग्यारहवीं प्रतिमाधारक और नाममात्रका वस्त्र-खंड धारण करनेवाले उत्कृष्ट श्रावकके लिए व्यवहृत होने लगा। इसके पूर्व ग्यारहवीं प्रतिमाधारीका 'भिक्ष क' नामसे व्यवहार होता था। इस भिक्षुक या ऐलकके लिए लंगोटी मात्रके अतिरिक्त सर्व वस्त्रों और पात्रोंके रखनेका निषेध है। साथ ही मुनियोंके समान खड़े-खड़े भोजन करने, केशलुंच करने और मयूरपिच्छिका रखनेका विधान है। इसे ही विद्वानोंने 'ईषन्मुनि' 'देश यति' आदि नामोंसे व्यवहार किया है। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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