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लाटीसंहिता
काङ्क्षा भोगाभिलाषः स्यात्कृते मुख्यक्रियासु वा । कर्मणि तत्फले स्वात्म्यमन्यदृष्टिप्रशंसनम् ॥७० हषीकारचितेषूच्चैरुद्वेगो विषयेषु यः । स स्याभोगाभिलाषस्य लिङ्ग स्वेष्टार्थरञ्जनात् ॥७१ तद्यथा न रतिः पक्षे विपक्षे वारति विना । नारतिर्वा स्वपक्षेऽपि तद्विपक्षे रति विना ॥७२ शीतद्वेषी यथा कश्चिदुष्णस्पर्श समीहते । नेच्छेदनुष्णंसंस्पर्शमुष्णस्पर्शाभिलाषुकः ॥७३ ।।
__यस्याऽस्ति काक्षितो भावो नूनं मिथ्यागस्ति सः।
यस्य नास्ति स सदृष्टिः युक्तिस्वानुभवागमात् ॥७४ .. आस्तामिष्टार्थसंयोगोऽमुत्रभोगाभिलाषतः । स्वार्थसाथैकसंसिद्धिर्न स्यानामहिकापि सा ॥७५ निस्सारं प्रस्फुरत्येष मिथ्याकर्मैकपाकतः । जन्तोरुन्मत्तवच्चापि वार्द्धांतोत्तरङ्गवत् ॥७६ ननु कार्यमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । भोगाकाङ्क्षां विना ज्ञानी तत्कथं वतमाचरेत् ॥७७ नासिद्धं बन्धमात्रत्वं क्रियायाः फलमद्वयम् । शुभमात्रं शुभायाः स्यादशुभायाश्वाशुभावहम् ॥७८ न चाऽऽशक्यं क्रियाऽप्येषा स्यादबन्धफला क्वचित् । दर्शनातिशयाद्धेतोः सरागेऽपि विरागवत् ॥७९ सरागे वीतरागे वा ननमौदयिको क्रिया । अस्ति बन्धफलावश्यं मोहस्यान्यतमोदयात् ॥८० न च वाच्यं स्यात्सदृष्टिः कश्चित्प्रज्ञापराधतः । अपि बन्धफलां कुर्यात्तामबन्धफलां विदन् ॥८१
रका आकस्मिक भय नहीं है। जब यह बात है तब इस पदको चाहनेवालेको आकस्मिक भय कैसे हो सकता है ।।६९।। व्रतादिक क्रियाओंको करते हए उनसे परभवके लिये भोगोंकी अभिलाषा करना, कर्म और कर्मके फल में आत्मीय भाव रखना और अन्यदृष्टिकी प्रशंसा करना कांक्षा है ॥७०।। इन्द्रियोंके लिए अरुचिकर विषयों में जो तीव्र उद्वेग होता है वह भोगाभिलाषाका चिह्न है, क्योंकि अपने लिए इष्ट पदार्थों में अनुराग होनेसे ही ऐसा होता है ॥७१।। जैसे स्वपक्षमें जो रति होती है वह भी विपक्षमें अरति हुए विना नहीं होती वैसे ही स्वपक्षमें जो अरति होती है वह भी उसके विपक्षमें रति हुए विना नहीं होती ।।७२।। जेसे कि शीत स्पर्शसे द्वेष करनेवाला व्यक्ति ही उष्ण स्पर्शको चाहता है, क्योंकि जो उष्ण स्पर्शको चाहता है वह शीत स्पर्शको नहीं चाहता है ।।७३।। इस प्रकारका कांक्षारूप भाव जिसके है वह नियमसे मिथ्यादृष्टि है और जिसके ऐसा भाव नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है यह बात युक्ति, अनुभव
और आगमसे जानी जाती है ।।७४|| भोगाभिलाषासे परभवमें इष्ट पदार्थों का संयोग होना तो दूर रहा किन्तु इससे ऐहिक पदार्थों की भी सिद्धि नहीं होती है ।।७५।। जैसे किसी उन्मत्त पुरुषके मनमें व्यर्थ ही नाना प्रकारके विकल्प उठा करते हैं या समुद्रमें वायुके निमित्तसे व्यर्थ ही नाना प्रकारकी तरंगें उठा करती हैं वैसे ही इस जोवके मिथ्यात्वकर्मके उदयसे यह भोगाभिलाषा व्यर्थ ही उदित होती रहती है ॥७६।। शंका-जब मन्द पुरुष भी कार्यका निश्चय किये विना प्रवृत्ति नहीं करता है तब फिर ज्ञानी पुरुष भोगाकांक्षाके विना व्रतोंका आचरण कैसे कर सकता है ॥७७|| क्रियाका फल एकमात्र बन्ध है यह बात भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि शुभ क्रियाका फल शुभ है और अशुभ क्रियाका फल अशुभ है ।।७८॥ यदि कोई ऐसी आशंका करे कि सम्यग्दर्शनके माहात्म्यसे वीतरागके समान किसी सरागीके भी यह क्रिया बन्ध फलवाली नहीं होती है, सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है ।।७९|| चाहे सरागी हो चाहे वीतरागी हो दोनोंके क्रिया औदयिकी ही होती है, इसलिये जब तक मोहनीयकी किसी एक प्रकृतिका उदय रहता है तबतक क्रियाका फल नियमसे बन्ध ही है ।।८०॥ यह कहना भी ठीक नहीं है कि कोई भी सम्यग्दष्टि जीव बुद्धिके दोषसे बन्ध फलवाली क्रियाको यह जानकर ही
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