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श्रावकाचार-संग्रह
सदृष्टिस्तु चिदशैः स्वैः क्षणे नष्टे चिदात्मनि । पश्यन नष्टमात्मानं निर्भयोऽत्राणभीतितः ॥५७ द्रव्यतः क्षेत्रतश्चापि कालादपि च भावतः । नात्राणमंशतोऽप्यत्र कुतस्तद्भीर्महात्मनः ॥५८ दृग्मोहस्योदयाद्बुद्धिर्यस्यैकान्तादिवादिनः । तस्यैवागुप्ति भीतिः स्यान्नूनं नान्यस्य जातुचित् ॥५९ असज्जन्म सतो नाशं मन्यमानस्य देहिनः । कोऽवकाशस्ततो मुक्तिमिच्छातो गुप्तिसाध्वसात् ॥६० सम्यग्दृष्टिस्तु स्वं रूपं गुप्तं वै वस्तुनो विदन् । निर्भयोऽगुमितो भीतेर्भीतिहेतोरसम्भवात् ॥ ६१ मृत्युः प्राणात्ययः प्राणाः कायवागिन्द्रियं मनः । निश्वासोच्छ्ावसमायुश्च दशैते वाक्यविस्तरात् ॥६२ तद्भीतिर्जीवितं भूयान्मामून्मे मरणं क्वचित् । कदा लेभे न वा दैवादित्याऽऽधिः स्वे तनुव्यये ॥ ६३ नूनं तद्भः कुदृष्टीनां नित्यं तत्त्वमनिच्छताम् । अन्तस्तत्त्वैकवृत्तानां तद्भीतिर्ज्ञानिनां कुतः ॥६४ जीवस्य चेतना प्राणा नूनं स्वात्मोपजीविनी । नार्थान्मृत्युरतस्तद्भः कुतः स्यादिति पश्यतः ॥ ६५ अकस्माज्जातमित्युच्चैराकस्मिकभयं स्मृतम् । तद्यथा विद्युदादीनां पातात्पातोऽसुधारिणाम् ॥६६ भीति भूयाद्यथा सौस्थ्यं माभूद्दौस्थ्यं कदापि मे । इत्येवं मानसी चिन्तापर्याकुलितचेतसाम् ॥६७ अर्थादाकस्मिक भ्रान्तिरस्ति मिथ्यात्वशालिनः । कुतो मोक्षोऽस्ति तद्भीतेनिर्भीकैकपदच्युतेः ॥ ६८ निर्भीकैकपदो जीवः स्यादनन्तोऽप्यनादिमान् । नास्त्याकस्मिकं तत्र कुतस्तद्भीस्तमिच्छतः ॥६९
मिथ्यादृष्टि इसे स्वीकार नहीं करता इसलिये वह अत्राणभयसे त्रस्त हो रहा है ॥ ५६॥ यद्यपि चैतन्य आत्माका अपनी चैतन्यरूप पर्यायोंकी अपेक्षा प्रति समय नाश हो रहा है । किन्तु सम्यग्दृष्टिजीव इस अपेक्षासे आत्माका नाश मानता हुआ भी अत्राणभयसे निडर है ||५७ ॥ यतः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षा वस्तु थोड़ी भी अरक्षित नहीं है अतः महात्माओंको अत्राण भय कैसे हो सकता है || ५८ || दर्शनमोहनीयके उदयसे जिसकी बुद्धि एकान्तवादसे मूढ़ है उसीके निश्चयसे अगुप्ति भय होता है किन्तु अन्यके ( सम्यग्दृष्टिके) ऐसा भय कभी भी नहीं होता है ||५९॥ जो प्राणी असत्का जन्म और सत् का नाश मानता है वह अगुप्ति भयसे भले ही छुटकारा चाहता हो पर उसे उससे छुटकारा कैसे मिल सकता है || ६०|| किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव वस्तुके स्वरूपको सदैव सुगुप्ति मानता है इसलिये उसके भयका कारण न रहनेसे वह अगुप्ति भयसे निर्भय है ||६१ || प्राणोंका वियुक्त होना ही मृत्यु है । विस्तारसे प्राण काय, वचन, पाँच इन्द्रियाँ, मन, श्वासोच्छ्वास और आयु ऐसे दस प्रकार के होते हैं ||६२ || मेरा जीवन कायम रहे, मेरा मरण कभी न हो, दैववश भी मैं मृत्युको प्राप्त न होऊँ इस प्रकार अपने शरीर के नाशके विषय में मानसिक चिन्ताका होना मरणभय है || ६३|| तत्त्वको नहीं पहिचाननेवाले मिथ्यादृष्टियोंको सदा ही इस प्रकारका मृत्यु भय बना रहता है किन्तु जिनकी वृत्ति अन्तस्तत्त्वमें लीन है ऐसे ज्ञानियोंको मृत्युं भय कैसे हो सकता है || ६४ || जीवके चेतना हो प्राण हैं और वह चेतना आत्माका उपजीवी गुण है । वास्तव में मृत्यु होती ही नहीं अतः इस प्रकारका जो अनुभव करता है उसे मृत्यु भय कैसे हो सकता है ||६५ || जो भय अकस्मात् उत्पन्न होता है वह आकस्मिक भय माना गया है । जैसे कि बिजली आदि गिरनेसे प्राणियोंका मरण हो जाता है ऐसे समय में आकस्मिक भय होता है ||६६ ||
मैं सदा स्वस्थ रहूँ अस्वस्थ कभी न होऊँ इस प्रकार व्याकुल चित्तवालेके जो मानसिक चिन्ता होती है वह आकस्मिक भय है ||६७|| वास्तवमें आकस्मिक भय मिथ्यादृष्टियों के ही होता है । ऐसा जीव निर्भय पदसे च्युत रहता है इसलिये इसे आकस्मिक भय से मुक्ति कैसे मिल सकती है ||६८ || वास्तव में यह जीव निर्भीक पदमें स्थित है, आदि और अन्तसे रहित है ।
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