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________________ श्रावकाचार-संग्रह . अन्य किसी भी श्रावकाचारमें निश्चय और व्यवहारकी चर्चा नहीं है। इसी तरह अन्तमें जो रत्नत्रयके एकदेशको भी कर्मबन्धका कारण न मानकर मोक्षका ही उपाय कहा है, सैद्धान्तिक दृष्टिसे वह चर्चा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । अन्य श्रावकाचारोंमें उसके दर्शन नहीं होते । श्लोक २११से २२० तक यही चर्चा है। श्लोक २११का अर्थ प्रारम्भसे ही भ्रमपूर्ण रहा है। और गतानुगतिकावश इस संग्रहमें भी वही अर्थ किया गया है। वह श्लोक इस प्रकार है असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥ २११॥ अर्थ-अपूर्ण रत्नत्रयधर्मको धारण करनेवाले पुरुषके जो कर्मबन्ध होता वह विपक्षी रागकृत है, रत्नत्रयकृत नहीं है।' परका अर्थ श्लोकके तीन चरणोंका है और ठीक है उसमें कोई विवाद नहीं है। किन्तु उसे जो चतुर्थ चरणसे सम्बद्ध करके अर्थ किया गया है वह यथार्थ नहीं है। लिखा है 'अतः वह परम्परया मोक्षका उपाय है, कर्मबन्धनका उपाय नहीं है।' जरा इस 'अतः' पर ध्यान दें। वह कर्मवन्ध रागकृत है अतः मोक्षका उपाय है। और यदि वह बन्ध रत्नत्रयकृत होता तो क्या वह मोक्षका उपाय न होता ? अपूर्ण रत्नत्रयको धारण करने पर होनेवाला कर्मबन्ध यतः रागकृत है अतः मोक्षका उपाय है यह विचित्र तर्क है। असलमें चतुर्थ चरण स्वतन्त्र है। वह कर्मबन्ध रागकृत क्यों है ? रत्नत्रयकृत क्यों नहीं है, इसके समर्थनमें युक्ति देता हैमोक्षका उपाय बन्धनका उपाय नहीं होता। अर्थात् अपूर्ण रत्नत्रय मोक्षका उपाय है, बन्धनका उपाय नहीं है। इसीसे अपूर्ण रत्नत्रयधर्मको धारण करनेवाले पुरुषके जो कर्मबन्ध होता है वह रत्नत्रयकृत नहीं है विपक्षी रागकृत है। इसीके समर्थन में आगेका कथन किया गया है कि जितने अंशमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है उतने अंशमें बन्ध नहीं है और जितने अंशमें राग है उतने अंशमें बन्ध है । अन्तमें ग्रन्थकार कहते हैं 'रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ।।२२०।। अर्थ-इस लोकमें रत्नत्रय तो निर्वाणका ही कारण है। अन्यका नहीं। किन्तु रत्नत्रय धारक मुनियोंके जो पुण्यबन्ध होता है वह उसके शुभोपयोगका अपराध है। जो आचार्य पुण्यबन्धको शुभोपयोगका अपराध कहते हैं वह उसे परम्परासे मोक्षका कारण कैसे कह सकते हैं ? अपने तत्त्वार्थसारमें वह लिखते हैं हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पूण्यपापयोः । हेतू शुभाशुभौ भावी कार्ये चैव सुखासुखे ॥१०३।। संसारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः।। न नाम निश्चयेनास्ति विशेषः पुण्यपापयोः ॥१०४।। -आस्रवाधिकार । अर्थ-हेतु और कार्यकी विशेषतासे पुण्य और पापमें भेद है। पुण्यका हेतु शुभभाव है और पापका हेतु अशुभ भाव है। पुण्यका कार्य सुख है और पापका अर्थ दुःख है। किन्तु दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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