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________________ प्रधान सम्पादकीय श्री जीवराज ग्रन्थमालाके मानद मंत्री श्री सेठ बालचन्द देवचन्द शाह एक कुशल कर्मठ कार्यकर्ता होनेके साथ ही एक दक्ष विचारक भी हैं। उन्हींके विचारमें समस्त श्रावकाचारोंका एक संकलन प्रकाशित करनेकी योजनाका सूत्रपात हुआ और उनके अनन्य सहयोगी तथा जीवराज ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक डॉ० ए० एन० उपाध्येने कार्यरूपमें परिणत किया। प्रकाशित तीन जिल्दोंमें अधिकांश श्रावकाचार पूर्व में प्रकाशित हैं किन्तु उनका इस प्रकारका संकलन एकदम अभिनव है। साधारण स्वाध्यायप्रेमी उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते । किन्तु जो विचारक हैं, अन्वेषक हैं, उनकी दृष्टिमें इस संकलनका मूल्य अत्यधिक है। ___ साधारणतया आठ मूलगुण, पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह श्रावकका सर्वमान्य आचार है। इसके प्रारम्भमें सम्यग्दर्शन और अन्तमें समाधिमरण जोडनेसे श्रावकधर्मपूर्ण हो जाता है । विक्रमकी तेरहवीं शतीके ग्रन्थकार पं० आशाधरने अपने सागारधर्मामृतमें कहा भी है सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते । सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् ॥ (१।१२) 'निर्मल सम्यक्त्व, निर्मल अणुव्रत गुणव्रत शिक्षावत और मरणकालमें विधिपूर्वक सल्लेखना यह पूर्ण श्रावकाचार है।' __ अतः प्रायः सभी श्रावकाचारोंमें इस श्रावक धर्मका वर्णन होने पर भी उसके निरूपणकी पद्धतिमें, अन्य प्रासंगिक कथन, तथा देशकालके प्रभावके कारण अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं और संशोधकोंके लिए वे महत्त्वपूर्ण हैं। प्रत्येक ग्रन्थकार केवल पूर्वकथनको ही नहीं दोहराता है। यदि वे ऐसा करें तो उनकी रचनाका कोई महत्त्व ही न रहे । पूर्व कथनको अपनाकर भो वे उसमें अपना वैशिष्टय भी प्रदर्शित करते हैं जिससे प्रवाह रूपसे आगत सिद्धान्तोंका संरक्षण होनेके साथ उसे प्रगति भी मिलती है और वे अधिक लोकप्रिय भी होते हैं। समस्त श्रावकाचारोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे उक्त कथनकी पुष्टि होती है। प्रत्येककी अपनीअपनी विशेषताएँ है। यथा१. कुछ श्रावकाचारोंको विशेषताएं १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारके प्रारम्भके चालीस पद्योंमें सम्यक्त्वके माहात्म्यका जसा वर्णन है वैसा अन्य किसी श्रावकाचारमें नहीं है । २. पुरुषार्थसिद्धयुपायका तो प्रारम्भ ही अनेक वैशिष्टयोंको लिये हुए हैं। वह समयसारके टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रकी कृति होनेसे उसके प्रारम्भमें ही निश्चय और व्यवहारको क्रमशः भूतार्थ और अभूतार्थ कहा है। और कहा है कि अनजानको जानकारी करानेके लिए मुनीश्वर व्यवहारका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहारको ही जानता है वह उपदेशका पात्र नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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