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________________ लाटीसंहिता सन्ति संसारिजीवानां कर्माशाश्चोदयागताः । मुह्यन् रज्यन् द्विषस्तत्र तत्फलेनोपयुज्यते ॥२५ एतेन हेतुना ज्ञानी निःशङ्को न्यायदर्शनात् । देशतोऽप्यत्र मूळया शङ्काहेतोरसम्भवात् ॥२६ स्वात्मसञ्चेतनं तस्य कीदृगस्तीति चिन्त्यते । येन कर्मापि कुर्वाणो कर्मणा नोपयुज्यते ॥२७ तत्र भोतिरिहामुत्र लोके वा वेदनाभयम् । चतुर्थी भीतिरत्राणं स्यादगुप्तिस्तु पञ्चमी ॥२८ भीतिः स्याद्वा तथा मृत्यु तिराकस्मिको ततः । क्रमादुद्देशिताश्चेति सप्तैताः भीतयः स्मृताः ॥२९ तोह लोकतो भीतिः क्रन्दितं चात्र जन्मनि । इष्टार्थस्य व्ययो मा भून्मा मेऽनिष्टार्थसङ्गमः ॥३० स्थास्यतीदं धनं नो वा दैवान्माभूद्दरिद्रता । इत्याद्याधिश्चिता दग्धुं ज्वलिते वा दृगात्मनः ॥३१ अर्थादज्ञानिनो भीति तिर्न ज्ञानिनः क्वचित् । यतोऽस्ति हेतुतः शेषाद्विशेषश्वानयोर्महान् ॥३२ कर्मोस उत्पन्न होने के कारण उन्हें पौद्गलिक या परपदार्थ रूप समझता है, अथवा उन्हें कर्मजन्य उपाधि समझता हुआ परपदार्थ रूप मानता है इसीलिए उन संज्ञाओंके होनेपर भी उसको भय उत्पन्न नहीं होता जैसे चक्षु रूपादिक परपदार्थोंको देखता हुआ भी नहीं देखता। भावार्थयद्यपि रूपादिक पदार्थों को चक्षु देखता है तथापि वास्तवमें देखा जाय तो भावेन्द्रियसे ही पदार्थ देखा जाता है । पुद्गलमयी द्रव्य चक्षुसे कुछ नहीं देखा जाता । यदि द्रव्य चक्षु ही देखता तो उस शरीरसे जीव निकल जानेके बाद भी देखता परन्तु जीव निकल जानेके बाद वह नहीं देखता। इससे सिद्ध होता है कि देखनेकी शक्ति भावेन्द्रियमें अथवा आत्मामें है। उसी प्रकार सम्यग्दष्टि मिथ्यादृष्टिके समान अपनेको संज्ञाओंका स्वामी समझकर उसमें लीन नहीं होता किन्तु उनसे अपनेको सर्वथा भिन्न समझता है और इसीलिए उन संज्ञाओंसे उत्पन्न होनेवाला भय उसको नहीं होता ॥२४।। इस संसारमें जितने प्राणी हैं उन सबके कर्मोंको वर्गणाएँ उदयमें आती रहती हैं। उन कर्मोके उदय होनेसे जो सुख-दु-खादिक फल मिलता है उसमें यह संसारी जीव मोह करने लगता है या राग करने लगता है अथवा द्वेष करने लगता है, परन्तु सस्यग्दृष्टि पुरुष इन सब कारणोंके मिलनेपर निःशंक रहता है । न तो उन कर्मोंके फलोंमें राग करता है, न द्वेष करता है और न मोह करता है क्योंकि राग, द्वेष, मोह ये तीनों ही दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे होते हैं तथा सम्यग्दृष्टि पुरुषके दर्शनमोहनीय कर्मका अभाव है इसीलिए उसके राग, द्वेष, मोह उत्पन्न नहीं होते, अतएव यह बात न्यायसे सिद्ध हो जाती है कि सम्यग्ज्ञानीके एकदेश भी मूर्छा नहीं है इसलिए उसके शंका होनेके कारण ही असम्भव हैं ॥२५-२६।। आगे इसी बातका विचार करते हैं कि इस सम्यग्दृष्टिकी ज्ञानचेतना कैसी बिचित्र है जिसके कारण वह सम्यग्दष्टि कर्मोको करता हुआ भी उनसे उपयुक्त नहीं होता ॥२७।। संसारमें सात प्रकारके भय हैं । क्रमसे उनके नाम ये हैं-इस लोकका भय, परलोकका भय, वेदनाका भय. चौथा अरक्षाका भय. पाँचवाँ अगप्तिका भय, छठा मत्युका भय और सातवाँ आकस्मिक भय । ये सात प्रकारके भय हैं ॥२८-२९।। इनमेंसे सबसे पहले इस लोकके भयको बतलाते हैं मेरे इष्ट पदार्थोंका कभी नाश न हो, इसी प्रकार मेरे अनिष्ट पदार्थों का भी कभी समागम न हो। इस प्रकार इस जन्ममें सदा विलाप करते रहना, इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोगसे सदा डरते रहना इस लोक सम्बन्धी भय कहलाता है॥३०॥ "यह घर मेरे ठहरेगा अथवा नहीं, मेरे घर देवयोगसे भी कभी दरिद्रता न हो' इस प्रकारकी अन्तरङ्गकी व्याधि रूपी चिन्ताएँ मानो मिथ्यादष्टिको जलानेके लिए ही उसके हृदय में सदा जलती रहती हैं ॥३१।। इस लोकके भयके लक्षणसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि यह इस लोक सम्बन्धी भय अज्ञानी या मिथ्यादृष्टिको ही होता है । वह इस लोक सम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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