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________________ श्रावकाचार संग्रह परत्रात्मानुभूतेर्वे विना भीतिः कुतस्तनी । भीतिः पर्यायमूढानां नात्मतत्त्वक चेतसाम् ॥ १९ ततो भीत्यानुमेयोऽस्ति मिथ्या भावो जिनागमात् । सा च भीतिरवश्यं स्याद्धेतोः स्वानुभवक्षतेः ॥ २० अस्ति सिद्धं परायत्त भीतः स्वानुभवच्युतः । स्वस्थस्य स्वाधिकारित्वान्नूनं भीतेरसम्भवात् ॥२१ ननु सन्ति चतस्रोऽपि संज्ञास्तस्यास्य कस्यचित् । अर्वाक् तत्तत्स्थितिच्छेदस्थानादस्तित्वसम्भवात् २२ तत्कथं नाम निर्भीकः सर्वतो दृष्टिवानपि । अप्यनिष्टार्थसंयोगादस्त्यध्यक्षं प्रमत्तवान् ||२३ सत्यं भीतोऽपि निर्भीकस्तत्स्वामित्वाद्यभावतः । रूपिद्रव्यं यथा चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति ||२४ ५२ मिथ्या दृष्टि सातों भयोंसे सदा ग्रस्त रहता है । परन्तु जिसके मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं है ऐसा सम्यग्दृष्टि सातों भयोंसे किंचिन्मात्र भी नहीं डरता है । डरनेकी तो बात ही क्या सम्यग्दृष्टि को सातों भय स्पर्श भी नहीं करते हैं । इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि शंका या डर उत्पन्न करनेवाला मिथ्यात्व कर्म ही है ||१८|| जिस समय यह जीव परपदार्थोंमें अपने आत्माका अनुभव करने लगता है उसी समय इसको भय उत्पन्न होता है । परपदार्थों में अपने आत्माका अनुभव हुए बिना भय किसी प्रकार उत्पन्न नहीं हो सकता । इसलिए जो जीव आत्माकी विभाव पर्यायोंको ही अपना आत्मा समझ लेते हैं उन्हींको भय होता है । जो जीव केवल अपने शुद्ध आत्माका ही अनुभव करते हैं उनके भय कभी नहीं हो सकता ||१९|| इस प्रकार जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि भय मिथ्यात्व कर्मके उदयसे ही होता है, उसके उत्पन्न होनेका और कोई कारण नहीं है तब यह बात भी अनुमानसे सिद्ध हो जाती है कि जिन जिन जीवोंके भय है उनके मिथ्यात्व कर्मका उदय अवश्य है तथा यह बात शास्त्रोंसे स्पष्ट है कि मिथ्यात्व कर्मके उदयसे होनेवाला वह भय अपने आत्माके अनुभवका नाश करने में अवश्य ही कारण है ||२०|| अतएव इस ऊपरके कथनसे यह सिद्ध हुआ कि जो पराधीन है, परपदार्थोंको अपना आत्मा समझ रहा है और इसलिए जो भय सहित है वह मनुष्य अपने आत्माके अनुभवसे अवश्य ही रहित है तथा जो मनुष्य अपने आत्मा के अनुभवमें लीन है वह अपने ही आत्माका अधिकारी हैं, परपदार्थका उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिए उस मनुष्यको किसी भी प्रकारका भय होना नितान्त असम्भव है ॥२१॥ यहाँपर कोई शंकाकार कहता है कि किसी किसी सम्यग्दृष्टिके आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएँ रहती है तथा उन संज्ञाओंका जहाँ तक जिस गुणस्थानतक नाश नहीं होता है वहाँ तक उन संज्ञाओंका अस्तित्व मानना ही पड़ेगा । अतएव सभी सम्यग्दृष्टि निर्भय होते हैं यह बात कैसे बन सकती है अर्थात् जिस सम्यग्दृष्टिके जहाँतक भय संज्ञा है वहाँ तक तो उसके भय मानना ही पड़ेगा इसमें तो उसके कोई सन्देह ही नहीं है । दूसरी बात यह है कि अनिष्ट पदार्थोंका सम्बन्ध होनेपर सम्यग्दृष्टिको भी प्रमाद उत्पन्न होता है और प्रमादके कारण वह भय करने लगता है यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है, अर्थात् सर्पादिक अनिष्ट पदार्थोंका संयोग होने पर उनसे बचनेका प्रयत्न वह करता ही है । इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टिको भी भय होता है वह सदा निर्भय नहीं रहता है || २२ - २३|| समाधान - यह बात ठीक है कि किसी किसी सम्यग्दृष्टिको भय होता है, किन्तु वह सम्यग्दृष्टि भयवान होता हुआ भी निर्भय होता है । इसका भी कारण यह है कि यद्यपि उसके चारों संज्ञाएँ हैं उन संज्ञाओं के कारण उसको भय उत्पन्न होता है परन्तु उसीके साथ यह भी है कि वह सम्यग्दृष्टि अपने आत्माको उन संज्ञाओं का स्वामी नहीं समझता अथवा यों कहना चाहिए कि उन संज्ञाओंको अपनी नहीं समझता किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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