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________________ ४२ श्रावकाचार संग्रह तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् । वात्सल्यं तद्गुणोत्कर्ष हेतवे सोद्यतं मनः ॥११३ भक्तिर्वा नाम वात्सल्यं न स्यात्संवेगमन्तरा । संवेगो हि दृशो लक्ष्म द्वावेतावुपलक्षणो ॥११४ दृग्मोहस्योदयाभावात्प्रसिद्धः प्रशमो गुणः । तत्रापि व्यञ्जकं बाह्यान्निन्दनं चापि गर्हणम् ॥ ११५ निन्दनं तत्र दुर्वाररागादौ दुष्टकर्मणि । पश्चात्तापकरो बन्धो नोपेक्ष्यो नाप्यपेक्षितः ||११६ गर्हणं तत्परित्यागः पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकः । निष्प्रमादतया नूनं शक्तितः कर्महानये ॥ ११७ अर्थादेव द्वयं सूक्तं सम्यक्त्वस्योपलक्षणम् । प्रशमस्य कषायाणामनुद्रेकाविशेषतः ॥ ११८ शेषमुक्तं यथाम्नायाद् ज्ञातस्य परमागमात् । आगमान्धेः परम्पारं मादृग्गन्तुं क्षमः कथम् ॥ ११९ एवमित्यादिसत्यार्थ प्रोक्तं सम्यक्त्वलक्षणम् । कैश्चिल्लक्षणिकैः सिद्धेः प्रसिद्धं सिद्धसाधनात् १२० भवेद्दर्शनिको नूनं सम्यक्त्वेन युतो नरः । दर्शनप्रतिभाभासः क्रियावानपि तद्विना ॥१२१ देशतः सर्वतश्चापि क्रियारूपं व्रतादि यत् । सम्यक्त्वेन विना सर्वमव्रतं कुतपश्च तत् ॥ १२२ ततः प्रथमतोऽवश्यं भाव्यं सम्यक्त्वधारिणा । अव्रतिनाणुव्रतिना मुनिनाथेन सर्वतः ॥ १२३ हैं ॥ ११२ ॥ कर्मोंका उपशम हो जाने से वचन, शरीर और चित्तका उद्धत न होना ही भक्ति है और सम्यक्त्वके गुणोंका उत्कर्ष करने के लिए मनका तत्पर रहना ही वात्सल्य है | ११३ || भक्ति और वात्सल्य ये संवेगके बिना नहीं होते, इसलिये संवेग सम्यग्दर्शनका लक्षण है और ये दोनों उसके उपलक्षण हैं ॥११४ || दर्शनमोहनीयके उदयाभावसे प्रशम गुण होता है और उसके निन्दा और ग ये बाह्य रूपसे अभिव्यंजक हैं ॥ ११५ ॥ वारण करनेके लिये कठिन ऐसे रागादि दुष्ट कर्मके सद्भावमें बन्ध अवश्य होता है जो न तो अपेक्षणीय है और न उपेक्षित भी है इस प्रकार पश्चात्ताप करना निन्दन है ||११६|| और प्रमाद रहित होकर शक्त्यनुसार कर्मोंका नाश करनेके के लिये पांच गुरु और अपनी साक्षीपूर्वक रागादि भावोंका त्याग करना गर्दा है ॥ ११७ ॥ यतः प्रशम गुणके समान इन दोनों गुणोंमें कषायोंके अनुद्रेककी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है अतः ये दोनों वास्तव में सम्यक्त्वके उपलक्षण हैं यह जो पहले कहा है सो बहुत ही अच्छा कहा है ।। ११८ || इस प्रकार पहले सम्यक्त्वके जिन गुणोंका वर्णन कर आये हैं उनके सिवाय शेष कथन आम्नायके अनुसार परमागमसे जान लेना चाहिये, क्योंकि आगमरूपी समुद्रके उस पार जानेके लिए हम सरीखे जन कैसे समर्थ हो सकते हैं | | ११९ || इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार जो सम्यग्दर्शनका लक्षण कहा है वही यथार्थ लक्षण है । वही लक्षण समस्त लक्षणों के जानकार कितने ही सिद्ध पुरुषोंने कहा है और यही लक्षण हेतुवादसे सिद्ध होता है ॥१२०॥ इस प्रकार जिस सम्यग्दर्शनका लक्षण कहा है उससे जो सुशोभित होता है जिसके वह सम्यग्दर्शन होता है वह मनुष्य दार्शनिक अथवा दर्शन प्रतिमावाला कहलाता है । यदि किसी मनुष्यके वह सम्यग्दर्शन न हो और वह मनुष्य क्रियावान् हो, यत्नाचारसे चलने वाला या व्रतादिकों को पालन करनेवाला हो तो भी दर्शनिक या दर्शनप्रतिमावाला नहीं कहलाता, दर्शनप्रतिमाभास अथवा मिथ्यादृष्टि कहलाता है ॥१२१॥ क्योंकि संसार में जितने भी क्रियारूप व्रत या तप हैं वे चाहे एकदेशरूप हों और चाहे पूर्णरूप महाव्रत हों वे सब बिना सम्यग्दर्शनके अवत कहलाते हैं तथा बिना सम्यग्दर्शनके जितना भी तप है वह सब कुतप कहलाता है ॥ १२२॥ इसलिए अव्रती श्रावकों को या अणुव्रतादि गृहस्थों के बारह व्रत धारण करनेवाले श्रावकोंको और महाव्रतादि धारण करनेवाले मुनियों को सबसे पहले सम्यग्दर्शन अवश्य धारण करना चाहिये ॥ १२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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