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________________ लाटीसंहिता ४१ सम्यक्त्वेनाविना भूतस्वानुभूत्येकलक्षणम् । आस्तिक्यं नाम सम्यक्त्वं मिथ्यास्तिक्यं ततोऽन्यथा ॥१०२ ननु वै केवलज्ञानमेकं प्रत्यक्षमर्थतः । न प्रत्यक्षं कदाचित्तच्छेषज्ञानचतुष्टयम् ॥१०३ यदि वा देशतोऽध्यक्षमाक्ष्यं स्वात्मसुखादिवत् । स्वसंवेदनप्रत्यक्ष मास्तिक्यं तत्कुतोऽर्थतः ॥ १०४ सत्यमाद्यद्वयं ज्ञानं परोक्षं परसंविदि । प्रत्यक्षं स्वानुभूतौ तु हग्ग मोहोपशमादितः ॥१०५ स्वात्मानुभूतिमात्रं स्यादास्तिक्यं परमो गुणः । भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञानमात्रे परत्वतः ॥ १०६ अपि तत्र परोक्षत्वे जीवादौ परवस्तुनि । गाढं प्रतीतिरस्यास्ति यथा सम्यग्दृगात्मनः ॥ १०७ न तथास्ति प्रतीतिर्वा नास्ति मिथ्यादृशः स्फुटम् । दृग्मो हस्योदयात्तत्र भ्रान्तेः सद्भावतोऽनिशम् ॥१०८ ततः सिद्धमिदं सम्यग्युक्तिस्वानुभवागमात् । सम्यक्त्वे नाविनाभूतमस्त्या स्तिक्यं गुणो महान् ॥ १०९ उक्तं च संवेओ निव्वेओ णिदण गरहा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकम्पा अट्ठगुणा हुंति सम्मते ॥ १८ उक्तं गाथार्थ पिप्रशमादिचतुष्टयम् । नातिरिक्तं यतोऽस्त्यत्र लक्षणस्योपलक्षणम् ॥ ११० अस्त्युपलक्षणं यत्तल्लक्षणस्यापि लक्षणम् । तद्यथास्त्यादिलक्ष्यस्य लक्षणं चोत्तरस्य तत् ॥ १११ यथा सम्यक्त्वभावस्य संवेगो लक्षणं गुणः । स चोपलक्ष्यते भक्त्या वात्सल्येनाथवार्हताम् ॥ ११२ आया । समस्त जीवादि वस्तु समुदाय निश्चय और व्यवहार नयसे जो जैसा माना गया है वह वैसा ही है ऐसी बुद्धिका होना आस्तिक्य है || १०१ || सो सम्यक्त्वका अविनाभावो है जिसका स्वानुभूति एक लक्षण है वह सम्यक् आस्तिक्य है और इससे विपरीत मिथ्या आस्तिक्य है || १०२॥ शंकावास्तव में एक केवलज्ञान हो प्रत्यक्ष है बाकीके चारों ज्ञान कभी भी प्रत्यक्ष नहीं हैं || १०३ ॥ अथवा अपने आत्माके सुखादिककी तरह इन्द्रियजन्य ज्ञान एकदेश प्रत्यक्ष हैं इसलिये आस्तिक्य भाव स्वसंवेदन प्रत्यक्षका विषय कैसे हो सकता है ? ॥ १०४ ॥ समाधान -- यह कहना ठीक है तथापि आदिके दो ज्ञान परपदार्थों का ज्ञान करते समय यद्यपि परोक्ष हैं तथापि दर्शनमोहनीयके उपशम आदिके कारण स्वानुभव के समय वे प्रत्यक्ष ही हैं || १०५ || प्रकृतमें अपने आत्माकी अनुभूति हो आस्तिक्य नामका परमगुण माना गया है। फिर चाहे परद्रव्यका ज्ञान हो चाहे मत हो, क्योंकि परपदार्थ पर है ||१०६|| दूसरे यद्यपि जीवादि परपदार्थ परोक्ष हैं तथापि इस सम्यग्दृष्टि जीवको जैसी उनकी गाढ़ प्रतांति होती है || १०७ || वैसी उनकी स्पष्ट प्रतीति मिथ्यादृष्टिके कभी नहीं होती, क्योंकि दर्शनमोहनीयके उदयसे उसके निरन्तर भ्रान्ति बनी रहती है || १०८ || इसलिये युक्ति, स्वानुभव और आगमसे यह भली भाँति सिद्ध होता है कि सम्यक्त्वके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाला आस्तिक्य नामका महान् गुण है || १०९ || कहा भी है- 'संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये सम्यक्त्वके आठ गुण हैं ||१८|| उक्त गाथा सूत्र में भी प्रशम आदि चारों ही कहे गये हैं अधिक नहीं क्योंकि इस गाया सूत्र में लक्षणके उपलक्षणको विवक्षा है ॥११०॥ जो लक्षणका भी लक्षण है वह उपलक्षण कहलाता है । क्योंकि जो आगेके लक्ष्यका लक्षण है वही प्रथम लक्ष्यका उपलक्षण है ||१११|| सम्यक्त्व भावका संवेग गुण लक्षण है, इसलिये सम्यक्त्व भाव अरहन्तोंकी भक्ति और वात्सल्यसे उपलक्षित हो जाता है। आशय यह है कि सम्यक्त्वका संवेग गुण लक्षण है और अरहन्तोंकी भक्ति और वात्सल्य ये दोनों गुण संवेग गुणके लक्षण हैं, इसलिये ये दोनों सम्यक्त्वके उपलक्षण प्राप्त होते ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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