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लाटीसंहिता इतरत्र पुनारागस्तद्गुणेष्वनुरागतः । नातद्गुणोऽनुरागोऽपि तत्फलस्याप्यलिप्सया ॥७८ अत्रानुरागशब्देन नाभिलाषो निरुच्यते । किन्तु शेषमधर्माद्वा निवृत्तिस्तत्फलादपि ॥७९ न चाऽऽशक्यं निषिद्धः स्यादभिलाषो भोगेष्वलम् । शुद्धोपलब्धिमात्रेऽपि हेयो भोगाभिलाषवत् ॥८० अर्थात्सर्वोऽभिलाषः स्यान्मिथ्या कर्मोदयात्परम् । स्वार्थस्यार्थक्रियासिद्धचे नालं प्रत्यक्षतो यतः ॥८१ क्वचित्तस्यापि सद्भावे नेष्टसिद्धिरहेतुतः । अभिलाषस्याभावेऽपि स्वेष्टसिद्धिस्तु हेतुतः ॥८२ यशःश्रीसुतमित्रादि सर्व कामयते जगत् । नास्य लाभोऽभिलाषेऽपि विना पुण्योदयात्सतः ॥८३ जरामृत्युदरिद्रादि नापि कामयते जगत् । तत्संयोगो बलादस्ति सतस्तत्राशुभोदयात् ॥८४ संवेगो विधिरूपः स्यानिर्वेदस्त विशेषसात् । स्याद्विवक्षावशादद्वैतं नार्थादर्थान्तरं तयोः ॥८५ त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा। संवेगोऽप्यथवा धर्मसाभिलाषो न धर्मवान् ॥८६ नापि धर्मः क्रियामानं मिथ्यादष्टेरिहार्थतः। नित्यं रागादिसद्धावात्प्रत्युताऽधर्म एव हि ॥८७ नित्यं रागी कुदृष्टिः स्यान्न स्यात्क्वचिदरागवान् । अस्तरागोऽस्ति सदृष्टिनित्यं वा स्यान्न रागवान् ॥८८
उदयाभाव तीसरे गुणस्थानमें भी होता है पर यह इसका अपवाद है इतना यहां विशेष समझना चाहिए।
धर्ममें और धर्मके फलमें आत्माका परम उत्साह होना या समान धर्म वालोंमें अनुरागका होना या परमेष्ठियोंमें प्रीतिका होना संवेग है ॥७६।। सम्यक्त्व मात्र या शुद्ध आत्माका अनुभव ही धर्म है और अतीन्द्रिय, अविनाशी क्षायिक सुख ही उसका फल है ।।७७॥ समान धर्मवालोंमें और पाँच परमेष्ठियोंमें जो अनुराग हो वह उनके गुणोंमें अनुराग बुद्धिसे ही होना चाहिये। किन्तु जो समान धर्मवालों या पाँच परमेष्ठियोंके गणोंसे रहित हैं उनमें इनके समान होनेकी लिप्साके विना तुराग नहीं होना चाहिए ॥७८॥ प्रकृतमें अनराग शब्दका अर्थ अभिलाषा नहीं कहा गया है। किन्तु अधर्म और अधर्मके फलसे निवत्ति होकर जो शेष रहता है वही अनुराग शब्दका अर्थ है ।।७९।। ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये कि अभिलाषा केवल भोगोंमें ही निषिद्ध मानी गई है। किन्तु जैसे भोगोंको अभिलाषा निषिद्ध है वैसे ही शुद्धोपलब्धिको अभिलाषा भी निषिद्ध मानी गई है ।।८।। वास्तवमें जितनी भी अभिलाषा है वह सब सम्यग्दर्शनके अभावमें होती है इसलिये वह अज्ञानरूप ही है, क्योंकि जिसे तत्त्वार्थकी प्राप्ति नहीं हुई है वही प्राप्त करना चाहता है। जिसने प्राप्त कर लिया है वह नहीं ।।८।। उदाहरणार्थ-कहींपर अभिलाषाके होनेपर भी कारण सामग्रोके नहीं मिलनेसे इष्ट सिद्धि नहीं होती है और कहींपर अभिलाषाके नहीं होने पर भी कारण सामग्रीके मिल जानेसे इष्ट सिद्धि हो जाती है ॥८२॥ यद्यपि सम्पूर्ण जगत् यश, लक्ष्मी, .पुत्र और मित्र आदिकी चाह करता है तथापि पुण्योदयके बिना केवल चाह मात्रसे उनकी प्राप्ति नहीं होती ॥८३।। इसी प्रकार सम्पूर्ण जगत्, जरा, मृत्यु और दरिद्रता आदिकी चाह नहीं करता है तथापि यदि जीवके अशुभका उदय है तो चाहके बिना भी बलात् (हठात्) उनका संयोग हो जाता है ।।।८४॥ संवेग विधिरूप होता है और निर्वेद निषेधरूप होता है। विवक्षा वशसे ही ये दो हैं वास्तवमें इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है ।।८५।। सब प्रकारकी अभिलाषाओंका त्याग ही निर्वेद है, क्योंकि इसका यही लक्षण है। अथवा वह निर्वेद संवेगरूप धर्म प्राप्त होता है, क्योंकि जो अभिलाषा सहित होता है उसके संवेगधर्म नहीं हो सकता ॥८६॥ यदि क्रियामात्रको धर्म कहा जाय सो भी बात नहीं है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके निरन्तर रागादि पाये जाते हैं इसलिए वह
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