SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ श्रावकाचार-संग्रह विना स्वात्मानुभूति तु या श्रद्धा श्रुतमात्रतः । तत्त्वार्थानुगताप्यर्थाच्छ्रद्धा नानुपलब्धितः ॥६६ लब्धिः स्यावविशेषाद्वा सदसतोरुन्मत्तवत् । नोपलब्धिरिहाख्याता तच्छेषानुपलब्धिवत् ॥६७ ततोऽस्ति यौगिकी रूढिः श्रद्धा सम्यक्त्वलक्षणम् । अर्थादप्यविरुद्धं स्यात्सूक्तं स्वात्मानुभूतिवत् ॥६८ गुणाश्चान्ये प्रसिद्धा ये सदृष्टेः प्रशमादयः । बहिदृष्टया यथा स्वं ते सन्ति सम्यक्त्वलक्षणम् ॥६९ तत्राद्यः प्रशमो नाम संवेगश्च गुणः क्रमात् । अनुकम्पा तथास्तिक्यं वक्ष्ये तल्लक्षणं यथा ॥७० प्रशमो विषयेषच्चै वक्रोधादिकेषु च । लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ॥७१ सद्यः कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् । तद्वधादिविकाराय न बुद्धिः प्रशमो मतः ॥७२ हेतुस्तत्रोदयाभावः स्यादनन्तानुबन्धिनाम् । अपि शेषकषायाणां नूनं मन्दोदयो शतः ॥७३ आरम्भाविक्रिया तस्य देवाद्वा स्यादकामतः । अन्तःशुद्धेः प्रसिद्धत्वान्नहेतुः प्रशमक्षतेः ॥७४ सम्यक्त्वेनाविनाभूतः प्रशमः परमो गुणः । अन्यत्र प्रशमं मन्येऽप्याभासः स्यात्तदत्ययात् ॥७५ संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः । सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥७६ धर्मः सम्यक्त्वमात्रात्मा शुद्धास्यानुभवोऽथवा । तत्फलं सुखमत्यक्षमक्षयं क्षायिकं च यत् ॥७७ नहीं सकती ॥६५॥ स्वानुभूतिके बिना केवल श्रुतके आधारसे जो श्रद्धा होती है वह यद्यपि तत्त्वार्थानुगत है तो भी तत्त्वार्थकी उपलब्धि नहीं होनेसे वह वास्तविक श्रद्धा नहीं है ॥६६॥ सत् और असत्की विशेषता न करके उन्मत्त पुरुषके समान पदार्थों की जो उपलब्धि होती है वह वास्तवमें उपलब्धि नहीं है किन्तु उन पदार्थोके सिवाय शेष पदार्थों की अनुपलब्धिके समान वह अनुपलब्धि ही है ॥६७। इसलिए यौगिक रूढिके आधारसे श्रद्धा सम्यक्त्वका लक्षण है यह कहना वास्तवमें तब अविरुद्ध हो सकता है जब उसे स्वानुभूतिसे युक्त मान लिया जाय ॥६८॥ सम्यग्दृष्टि जीवके जो प्रशमादिक अन्य गुण प्रसिद्ध हैं बाह्य-दृष्टिसे वे भी यथायोग्य सम्यक्त्वके लक्षण हैं ॥६९॥ उनमेंसे पहला प्रशम गुण है, दूसरा संवेग है, तीसरा अनुकम्पा है और चौथा आस्तिक्य है । अब क्रमसे इनका लक्षण कहते हैं ।।७०॥ पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंमें और असंख्यात लोक प्रमाण क्रोधादिक भावोंमें स्वभावसे मनका शिथिल होना प्रशम भाव है ॥७१।। अथवा उसी समय अपराध करनेवाले जीवोंके विषयमें कभी भी उनके मारने आदिकी प्रयोजक बुद्धिका नहीं होना प्रशम भाव है ॥७२॥ इस प्रशम भावके होनेमें अनन्तानबन्धी कषायोंका उदयाभाव और शेष कषायोंका अंश रूपसे मन्दोदय कारण है ॥७३।। यद्यपि प्रशम भावसे युक्त सम्यग्दृष्टि जीव देव वश बिना इच्छाके आरम्भ आदि क्रिया करता है तथापि अन्तरंगमें शुद्धता होनेसे वह क्रिया उसके प्रशम गुणके नाशका कारण नहीं हो सकती ॥७४॥ सम्यक्त्वके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला जो प्रशम भाव है वह परम गुण है और सम्यक्त्वके अभावमें जो प्रशम भाव होता है वह प्रशम भाव न होकर प्रशमाभास है ऐसा मैं मानता हूँ ॥७५॥ विशेषार्थ-कषाय और विषयाभिलाषा ही जीवनमें व्याकुलताका कारण है और जहां व्याकुलता है वहाँ प्रशमभावका होना अत्यन्त कठिन है। यही कारण है कि प्रशम गुणके लक्षणका निर्देश करते हुए उसे क्रोधादि कषाय और विषयोंमें मनको शिथिलतारूप बतलाया है। किन्तु इस प्रकारकी मनकी शिथिलता कदाचित् सम्यक्त्वके अभावमें भी देखी जाती है जिससे कि प्रशम गुण सम्यक्त्वका सहचारी नहीं माना गया है । किन्तु जो प्रशम गुण अनन्तानुबन्धीके उदयाभावमें होता है वह अवश्य ही सम्यक्त्वका सहचारी है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी कषायोंका उदय नहीं पाया जाता। यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषायका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy