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________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार सुदृष्टिः प्रतिमाः काश्चित् क्रमात्काश्चि द्विना क्रमम् । वघदप्येति संविग्नः कतिचिद्धिर्भवैः शिवम् ॥९४ न विना दर्शनं शेपाः प्रतिमा विधृता अपि । शिवाय नुः प्रजायन्ते भवैरपि परः शतैः ॥९५ ज्ञात्वेति दर्शनं धृत्वा निर्मलं विमलाशय । शेषा धार्या यथाशक्ति प्रतिमा प्राणिरक्षकैः ॥९६ इच्छाकारं मिथः कुर्युः सर्वेऽपि प्रतिमाधृतः । वात्सल्यं विनयं चैव मानहोना यथोचितम् ॥९७ इत्थ सुश्रावकाचारमाचरन् कृतसंवरः । कुर्यात्सल्लेखनामन्ते समाधिमरणेच्छया ॥९८ जाते रोगेऽप्रतीकार उपसगेऽथ दारुणे। कैश्चित्संयमताशे वा प्रारब्धे टुष्टचेष्टितैः ॥९९ जलानलादियोगे वा सञ्जाते मृत्युकारणे । उपान्ते वा परिज्ञाते निमित्ता_निजायुषः ॥१०० प्रारभेत कृती कर्तुं शुद्धं सल्लेखनाविधिम् । सङक्षेपाद् वक्ष्यमाणेन मयाऽत्र विधिनाऽमुना ॥१०१ द्रव्यादिकं नियाज्य स्वं सर्व धर्मादिकर्मणि । बन्धुमित्रादिभिः सर्वैः क्षन्तव्यं संविधाय च ॥१०२ समाश्रित्य गुरु कञ्चिन्निर्यापकमतापकम् । आलोचनां विधायास्य पुरः पूर्वाखिलागसाम् ॥१०३ आन्तरान् कामकोपादीनिष्ठाप्य द्वषिणोऽखिलान् । शरोरादौ बहिर्द्रव्ये निर्ममत्वं विधाय च ॥१०४ उत्तर में इच्छामि' कहता है। इस प्रकारको यह युक्ति अनुक्रमसे प्रतिमाधारियोंकी जाननी चाहिए ।। ९१-९३ ।। कोई दर्शन प्रतिमाका धारक सम्यग्दृष्टि जोव इन प्रतिमाओंको क्रमसे धारण करता है और कोई उनको बिना क्रमसे भी धारण करता है, फिर भी वह संविग्न श्रावक कुछ भवोंसे मोक्षको प्राप्त करता है। किन्तु दर्शनप्रतिमाके बिना शेष धारण की गई भी प्रतिमाएं सैकड़ों भवोंके द्वारा भी मनुष्यकी मुक्ति या शिवपदकी प्राप्तिके लिए नहीं होती हैं ॥ ९४-९५ ।। ऐसा जानकर निर्मल अभिप्राय वाले प्राणि-रक्षक मनुष्योंको निर्मल दर्शनप्रतिमा धारण करके ही शेष प्रतिमाएं यथाशक्ति धारण करनी चाहिा ॥९६ ॥ सभी प्रतिमाधारकोंको मानसे रहित होकर परस्पर वात्सल्य और विनय-पूर्वक इच्छाकार करना चाहिए ।। ९७ ॥ इस प्रकारसे पापोंका संवर करनेवाले और उत्तम रीतिसे श्रावकके आचारको आचरण करनेवाले श्रावकको जीवनके अन्त में समाधिमरणकी इच्छासे सल्लेखना धारण करनी चाहिए ॥ ९८ ॥ प्रतीकार-रहित रोगके हो जाने पर, दारुण उपसर्गके आनेपर, अथवा दुष्ट चेष्टावाले मनुष्योंके द्वारा संयम-विनाशक कार्य के प्रारम्भ करने पर, जल, अग्नि आदिका योग मिलनेपर, अथवा इसी प्रकारका अन्य कोई मृत्युका कारण उपस्थित होनेपर, अथवा ज्योतिष-सामुद्रिक आदि निमित्तोंसे अपनी आयुका अन्त समीप जाननेपर कर्तव्यके ज्ञाता मनुष्यको मेरे द्वारा संक्षेपसे आगे कही जानेवाली विधि-पूर्वक शुद्ध सल्लेखना विधिको करनेका प्रयत्न आरम्भ करना त्राहिए ।। ९९-१०१ ।। अपने पासके सभी धन आदिको धर्मकार्य में लगाकर और बन्धु-मित्र आदि सभी जनोंमे क्षमा याचना करके किसी शान्त-स्वभावी निर्यापकाचार्यको प्राप्त होकर पूर्वमें किये हुए अपने समस्त पापोंकी निश्टलभावसे आलोचना करके, तथा आन्तरिक काम-क्रोधादि समस्त शत्रुओंको दूर करके और शरीरादि बाहिरी द्रव्यमें निर्ममत्वभाव धारण करके गुरुके द्वारा कही गई यक्ति-पूर्वक खाद्य दाल-भात-रोटी आदि) और स्वाद्य (सभी प्रकारके स्वादिष्ट पकवान आदि) को क्रमसे त्याग करना चाहिए । आहारका परित्याग करके पुनः क्रमस लेह्य (चाँटने योग्य) अवलेह, वामनी युक्त औषधि आदिको क्रमसे छोड़े। और फिर पेय(पीने योग्य दूध, छांह और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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