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________________ ५३. श्रावकाचार-संग्रह पृष्टः शश्रृषिणां कुर्याजिनधर्मोपदेशनम् । असत्यं परुषं ग्राम्यं न जातु वचनं वदेत् ॥८१ आसनं शयनं कुर्यात् प्रतिलेख्यैव यत्नतः । चरेच्च पथि भून्यस्तदृष्टिर्जन्तून् विवर्जयेत् ॥८२ निन्दकेषु न कुर्वन्ति रोषं तोषं स्तुवत्स्वपि । सर्वत्र समभावः स्यात्साम्यमेव परं व्रतम ॥८३ व्रतादो जातु सञ्जातं दोषं संशोधये गुरोः । प्रायश्चित्तेन कस्तादृग् व्रतं दोविनाशयेत् ॥८४ खण्डयेत् प्राणनाशेऽपि न गृहीतं व्रतं सुधीः । प्रतिज्ञालवनं धीराः सर्वनिन्दास्पदं विदुः ॥८५ इत्यादियुक्तिविद् पत्ते यः सती प्रतिमाममूम् । स द्वि-त्रिषु भवेष्वेव प्राप्नोति सुखमक्षयम् ॥८६ कांश्चनासहमानोऽपि नग्नतादीन् परीषहान् । पूतान्त्यप्रतिमाघारी यतीव क्षपयत्यघम् ॥८७ संयतासंयतो देशयतिः क्षुल्लक इत्यपि । उपासकादयश्चाख्या निखिलप्रतिमाभृताम् ॥८८ (इत्यनुद्दिष्टप्रतिमा ११) इत्थमेता मयाऽऽत्याताः प्रतिमा पञ्च-षट्प्रमाः । सङ्क्षपादेव देवेशवन्द्यपादाऽर्हदागमात् ॥८९ आय॑र्धार्या यथाशक्ति क्रमेणकादशाप्यमूः । दर्शनप्रतिमा मुख्या दोषमुक्ताः सुखाथिभिः ॥९० इच्छाकारं नमः कुर्याद्दर्शनी वतिना पुरा । तो सामायिकिनस्ते तु प्रोषधव्रतधारिणः ॥९१ इत्यं यो यः क्रमाद धत्ते प्रतिमासु परां पराम् । तस्य तस्य पुरा पूर्व इच्छाकारं प्रकुर्वते ॥९२ पश्चात्परश्च पूर्वेषामिच्छामीत्येव जल्पति । युक्तिरेषा परिक्षयाऽनुक्रमप्रतिमाधृताम् ॥१३ - पूछे जाने पर सुननेके इच्छुक जनोंको धर्मका उपदेश देवे, किन्तु असत्य, कर्कश और ग्रामीण वचन कभी न कहे ॥ ८१ ॥ आसन, शयन आदि कार्य यत्लसे प्रतिलेखन करके ही, करे, मार्गमें भूमि पर दृष्टि रख कर चले और जन्तुओंको बचावे ।। ८२ ।। अपनी निन्दा करने वालों पर रोष नहीं करे और स्तुति करने वालों पर सन्तोष प्रकट न करे, किन्तु दोनों पर ही समभाव रखे; क्योंकि साम्यभाव ही परमव्रत है ।। ८३ ॥ कदाचित् व्रतादिमें कोई दोष हो जाय, तो गुरुसे प्रायश्चित्त लेकर उसे शुद्ध करे। कौन बुद्धिमान् अपने शुद्ध व्रतको दोषोंसे विनष्ट करेगा? कोई भी नहीं करेगा ॥८४|| बुद्धिमान्को चाहिए कि ग्रहण किये गये व्रतको प्राणोंका नाश होने पर भी खंडित न करे । क्योंकि धीर-वीर पुरुष प्रतिज्ञाके उल्लंघनको सबसे अधिक निन्दास्पद मानते हैं ।। ८५ ।। इत्यादि युक्तियोंका वेत्ता जो इस उत्तम प्रतिमाको विधिपूर्वक निर्दोष धारण करता है, वह दोतीन भवोंमें ही अक्षय सुखको प्राप्त करता है ।। ८६ ॥ नग्नता आदि कितनी ही परीषहोंको नहीं सहन करता हुआ भी यह पवित्र अन्तिम प्रतिमाधारी मुनिके समान पापोंका क्षय करता है ।।८७॥ इस ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक सर्वोत्कृष्ट संयतासंयत, देशयति और क्षुल्लक कहलाता है। और उपासक, श्रावक आदि नाम तो सभी प्रतिमाधारियोंके हैं ।। ८८ ॥ इस प्रकार ग्यारहवीं अनुद्दिष्ट प्रतिमाका वर्णन किया। - इस प्रकार देवेन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय चरण-कमलवाले श्री जिनेन्द्रदेवके आगमसे उक्त ग्यारह प्रतिमाओंको मैंने संक्षेपसे ही कहा ॥ ८९ ।। सुखके इच्छुक आर्य पुरुषोंको दर्शन प्रतिमा जिनमें मुख्य है ऐसो ये ग्यारह प्रतिमाएं दोष-रहित क्रमसे ही धारण करना चाहिए ॥ ९० ।। दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक व्रतप्रतिमाधारीको पहले इच्छाकार बोलते हुए नमस्कार करे, प्रथमकी दोनों प्रतिमाधारी सामायिक प्रतिमावालेको, और प्रारंभके तीनों प्रतिमाधारक प्रोषधतिमावालेको इसी प्रकारसे इच्छा कार-पूर्वक नमस्कार करें। इस प्रकारके क्रमसे पूर्व-पूर्व प्रतिमाधारी आगे आगेकी प्रतिमाधारोको इच्छाकार-पूर्वक नमस्कार करता है और आगेकी प्रतिमावाला पहले की प्रतिमाधारीको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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